विग्रह 4 राजकुमार वीरवर सभा से चल दिया। शूद्रक के मत्रियों ने वीरवर का वेतन और उसकी सामग्री देखकर राजा को सलाह दी कि महाराज इस राजकुमार को चार दिन का वेतन देकर नियुक्त कर लेना चाहिए । देखते है कि यह किस कार्य का व्यक्ति है । मन्त्रियों की बात सुनकर राजा ने वीर- वर को वापस बुला लिया और उसे चार दिन का वेतन देकर अपनी सेवक-वृत्ति पर नियुक्त कर दिया । राजा ने वीरवर के पीछे गुप्तचर नियुक्त कर दिये । जिन्होंने वीरवर का व्यय का ब्यौरा बतलाते हुए कहा : महाराज, वीरवर ने अपने वेतन का आधा भाग देव-पूजन तथा यज्ञादि मे दान कर दिया। शेष का आधा देश के निर्धनो की सहायता में लगा दिया। वाकी का उसने उपभोग किया। और फिर आपके द्वार पर खड़ा हो गया। उसके हाथ में तल- वार थी और कुछ भी न था । राजा शूद्रक ने देखा वीरवर सदा नंगी तलवार लिए उसके साथ रहता है। उसके भवन के अन्दर चले जाने पर स्वयं द्वार पर ही खड़ा रहता है। एक दिन कृष्णपक्ष की चौदस की रात्रि को राजा शूद्रक अपने रनिवास में सो रहा था। अचानक किसी के रोने का स्वर सुनकर उसकी निद्रा भग हो गई। वह उठकर बैठ गया । अब उसे रुदन का स्वर स्पष्ट सुनाई दे रहा था । वह किसी नारी का करुण-क्रन्दन था। राजा ने पुकारा : द्वार पर कौन है ? वीरवर · मैं हूँ महाराज, वीरवर ! राजा : जाओ देखो, वह अर्धरात्रि में कौन रो रहा है ? ग ४
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