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पृष्ठ:हितोपदेश.djvu/१४६

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सन्धि । ब्रह्मपुर नाम के नगर में कौन्डिन्य नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण रहता है। वह महान् ब्रह्मनिष्ठ और वेदपाठी है। एक दिन उसका वीस वर्षीय नवयुवक पुत्र मेरे पास से निकला दुर्भाग्यवश मैने अपने कठोर स्वभाव के कारण उसके सुशील नामक पुत्र को डस लिया। पुत्र के निधन का समाचार सुनकर कौन्डिन्य अपने आश्रम की ओर भागा हुआ आया। अपने पुत्र के मृत शरीर को देख- कर वह शोक से मूर्छित हो गया। सुशील की मृत्यु का समा- चार समस्त ब्रह्मपुर मे शीत्र ही फैल गया। कौन्डिन्य के भाई- बन्धु वहाँ एकत्रित हो गए। कहा भी है: उत्सवे व्यसने युद्धे दुर्भिक्षे राष्ट्र विप्लवे । राजद्वारे श्मशाने च य स्तिष्ठिति स वान्धवः ।। उत्सव के समय, दुःख के समय, युद्ध के समय, अकाल पड़ने पर, राष्ट्र में उपद्रव होने के समय, कचहरी और श्मशान में जो साथ देता है, वही बन्धु है । अपने बन्धु-बान्धवों को एकत्रित देखकर कौन्डिन्य और जोर-जोर से विलाप करने लगा। उसे इस भांति विलाप करते देख कपिल नाम के एक गृहस्थी ने समझाते हुए कहा : कौन्डिन्य, इस अनित्य संसार में सदा रहने वाला कौन है ? वालक के उत्पन्न होते ही उसकी मृत्यु उसके साथ हो लेती है। इस संसार में अनेकों बड़े-बड़े राजा-महाराजा उत्पन्न जिनके पास कई अक्षौहिणी सेना थी। परन्तु आज उनका पता भी नही। जीवन के बढ़ते हुए क्षण उसे मृत्यु की ओर ही तो ले जाते है। यहां तक कि जीवन का प्रत्येक क्षण 3 । 2