मित्रलाभ है । अतः अव मेरा यहाँ रहना उचित नहीं। तो क्या मै भिक्षा मांग कर अपना निर्वाह करूं ? यह भी असम्भव है। भिक्षा मांगकर खाने से तो भूखो ही मर जाना अच्छा है। इसी भांति विचार करके मैंने लोभवन पुनः उसो भवन में घर वनाया। उसका फल भी पाया। मै धीरे-धीरे चल रहा था कि वीणाकर्ण ने उसी फटे हुए वास से मुझे पीटा। मार पड़ने पर मुझे हार्दिक खेद हुआ। उसी दिन मैने निश्चय कर लिया कि कभी भी आशा का सहारा नहीं लूंगा । सदा निराश रहकर ही परिश्रम करूंगा। अतः उसी दिन से मैं इस निर्जन वन मे चला आया। कुछ समय के उपरान्त यहा लघुपतनक नाम का मित्र -मुझे भगवान की कृपा से प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् लघुपतनक की कृपा से आज आपके दर्शन हो गये। मन्थर बोला . मित्र, जो होना था वह तो हो चुका । आपने जो इतना अधिक सचय किया, यह उसी का परिणाम है। आप सचय न करते तो आपको उसके नाग का दुःख भी न होता । अर्थ का तो उपभोग या दान ही सर्वश्रेष्ठ उपयोग है। तुम्हारी ही भाति संचय करने के कारण एक गीदड़ की मृत्यु हो गई थी। हिरण्यक : वह क्या कथा है ? । मन्थर . सुनो!
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