सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हितोपदेश.djvu/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६० हितोपदेश

गया । दमनक संजीवक से वोला :

ओ बेल ! मेरी ओर देख । मै महाराजाधिराज पिंगलक की ओर से वन की रक्षा के लिये नियुक्त किया गया हूँ । वह देखो, हमारा सेनापति करटक तुम्हें आज्ञा देता है कि तुम शीघ्र ही हमारे वन की सीमा से बाहर चले जाओ । हमारे स्वामी जरा-ज्रा-सी वातों पर गरम हो जाते हैं। क्रोध मे क्या कर बैठे, कोई कुछ कह नही सकता ।

यह सुनते ही संजीवक करटक के सामने हाथ जोड़कर खड़ा होगया और वोला :

सेनापृते !

करटक : ओ बैल ! यदि तू इस वन में रहना चाहता है तो चलकर हमारे स्वामी को प्रणाम कर।

संजीवक : स्वामी ! कौन स्वामी ?

करटक : हमारे स्वामी महाराधिराज सिह पिंगलक । उसके पास ही तुम्हें जाना होगा ।

संजीवक के होश उड़ गये। वह डरते-डरते बोला :

सेनापति, पहले मुझे अभय वचन दो।

करटक--ओ मूख्े बेल, तू इतना क्यों डरता है। वह तो महापराक्रमी सिंह है। तुझ जैसे तृणाहारी जीव को मारना तो वह अपना तिरस्कार समझता है। मूख्खे वैठ ! तेरी यह आशंका तो नितान्‍्त निर्मुल है। सिह यदि गरजता है तो मेघ गजन के प्रत्युत्तर में । वह कभी भी सियारों का शब्द सुनकर थोड़े ही गर्जेन करता है ?

इतना समझाकर दोनों संजीवक को अपने साथ ले गये । पिंगलक के दरवार के निकट पहुँचकर उन्होंने संजीवक को _