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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१०५

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पहला अध्याय २३ ने कहा, एक के सिवा दूसरा परमात्मा भी नहीं। नम्मालवार वर्ण किसी को ऊँचा अथवा नीचा नहीं बना सकता । जिसे परमात्मा का ज्ञान है, वही उच्च है और जिसे नहीं, वही नीचx शैव भक्त पट्टाकिरियर की यही आंतरिक कामना थी कि अपने ही भाइयों को यहाँ के लोग नीच समझने से कब बाज आवेंगे । वह यही मनाता रहा कि कब वह दिन आवेगा जब हमारी जाति एक ऐसे बृहद् भ्रातृमंडल में परिणत हो जायगी, जिसे वर्ण-भेद का अत्याचार भी अव्यवस्थित न कर सके- वर्ण-भेद का वह अत्याचार जिसका विरोध कर कपिल ने प्राचीन काल में शुद्ध मनुष्य मात्र होना सिखाया था + | भक्त तिरुप्पना-लवार को नीच जाति का होने के कारण जब लोगों ने एक बार श्रीरंग के मंदिर में प्रवेश करने से रोक दिया, तो उच्च जाति का एक भक्त उसे अपने कंधे पर चढ़ाकर मंदिर में ले गया। परंतु वैष्णव धर्म का पुनरुत्थान जिन कट्टर परिस्थितियों में हुआ, उन्होंने इस न्याय-कामना के अंकुर को पनपने न दिया। आलवारों के बाद वैष्णव धर्म की बागडोर निन महानाचार्यों के हाथ में गई, वे बहुत कट्टर कुलों के थे और परंपरागत शास्त्रों की सब मर्यादाओं की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते थे । शूद्रों के लिए भक्ति का अधिकार स्वीकार करना भी उन्हें खला । जिस अज्ञान की दशा में शूद्र युगों से पड़े हुए थे, उससे उनको उठने देना उन्हें अभीष्ट न था। रामानुजाचार्य ने उनके लिए केवल उस अपत्ति मार्ग की व्यवस्था की जिसमें संपूर्ण रूप से भगवान् ।

  • सिद्धांतदीपिका' ११, १० (अप्रैल १६११) पृ. ४३३,

कार्पेटर-थीज्म इन मेडीवल इंडिया', पृल ३६६ । x “तामिल स्टडीज", पृ० ३२७, कार्पेटर-थीज्म, पृ० ३८२ । + "तामिल स्टडीज", पृ० १५६, ३६६ । = कार्पेटर-थीज्म', पृ० ३७६।