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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१०६

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२४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय को शरण में जाना होता था, भक्ति मार्ग की नहीं। भक्ति से उनका अभिप्राय अनन्य वितन के द्वारा परमात्मा की शान-प्राति का प्रयत्न था । जिसकी केवल ऊँचे वर्णवालों के लिये व्यवस्था की गई थी। शूद्र इसके लिये अयोग्य समझा गया । किंतु उत्तर भारत में परिस्थितियाँ दूसरे प्रकार की थीं। वहाँ ये बातें चज न सकती थी। मुन जना ती सनाज-व्यवस्था को तुलना में हिंदू वर्ण अवस्था में यूद्रों की अनोपजनक स्थिति सहसा खटक जाती थी। अतएव इन प्राचार्यों द्वारा प्रवर्तिन वैष्णव धर्म की लहर जब उत्तर-भारत में आई तो उस पर भो परिस्थितियों ने अपना प्रभाव डालना प्रारंभ कर दिया । परिस्थितियों का यह प्रभाव बहुत पहले गोरखनाथ ही में दृष्टिगत होने लगता है । जिसने मुसलमान बाबा रतन हाजी को अपना शिष्य बनाया था, किंतु दक्षिण से आनेवाली वैष्णव धर्म की इस नवीन लहर में इसका पहले पहल दर्शन हमें रामानंद में होता है। रामानंद ने काशी में शांकर अद्वैत की शिक्षा प्राप्त की थी, किंतु दीक्षा दी भी उन्हें विशिष्टा- द्वैती स्वामी राबवानंद ने जो रामानुज की शिष्य-परंपरा में थे। कहते हैं कि राबवानंद ने अपनी योग-शक्ति से रामानंद की आसन्न मृत्यु से रखा की थी। रामानन्द ने उत्तरी भारत को परिस्थितियों को बहुत अच्छी तरह से समझा। उन्हें इस बात का अनुभव हुआ कि नीच वर्ण के लोगों के हृदय में सच्ची लगन पैदा हो गई है। उसे दबा देना उन्होंने अनुचित सममा । अतएव उन्होंने परमात्मा की भक्ति का दरवाजा सबके लिये खोल दिया। उन्होंने जिस बैरागी संप्रदाय का प्रवर्तन किया था, उसमें जो चाहता प्रवेश कर सकता था। भगवद्भक्ति के क्षेत्र में उन्होंने वह भावना उत्पन्न कर दी, जिसके अनुसार 'जाति-पाति पूछे नहिं कोई । हरि को मजै सो हरि का होई ।।' भक्ति के क्षेत्र में उन्होंने वर्ण विभेद को ही नहीं, धार्मिक विद्वेष को भी स्थान न दिया और ऊँच-नीच, हिन्दू- .