हिन्दी-काव्य में निर्गुण संप्रदाय को भी अनुमति मिल गई। पर रामानन्दजो ने भी परम्परागत कट्टर परिस्थितियों में शिक्षा-दीना पाई थी। इसलिए यह आशा नहीं की जा सकती थी कि उन्मेष-प्राप्त शूहों की आकांक्षाओं को वे पूर्ण कर सकते। उनके शिष्यों में अनन्तानन्द आदि कट्टर मर्यादावादी लोग भी थे। शास्त्रोक्त जोक मर्यादा के परम भक्त गोस्वामी तुलसीदास भी रामानन्द की ही शिष्य-परम्परा में थे। इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने भक्त्युपदेशों और तत्वज्ञान को बे-हिचक अपनी वाणो के द्वारा ऊँच-नीच सबमें वितरित किया था, तथापि वे बहुत दूर न जा सकते थे। इतना भी उनके लिये बहुत था। वेदांतसूत्र पर आनंद-भाष्य नामक एक भाष्य उनके नाम से प्रचलित हुआ है। उसके शूद्राधिकार में शूद्र को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं माना गया है। अभी इस भाष्य पर कोई मत निश्चित करना ठीक नहीं है। सामाजिक व्यवहार के क्षेत्र में हिंदू को मुसलमान से तथा द्विज को शब्द से, जो संकोच होता है उसका निराकरण स्वामी रामानंद स्वतः कर सकते, यह आशा नहीं की जा सकती थी। यह उनके शिष्य कबोर के बाँट में पड़ा, जिसके द्वारा नवीन विचार-धारा को पूर्ण अभिव्यकि मिली इस प्रकार मध्यकालीन भारत को एक ऐसे आंदोलन की आवश्यकता थी, जिसका उद्देश्य होता उस अज्ञान और अंधपरंपरा का निराकरण जिसने एक ओर तो मुसलमानी धांधता को जन्म दिया और दूसरी ओर शूद्रों के ऊपर सामाजिक अत्या- संप्रदाय चार को। यही दो बातें सांप्रदायिक ऐक्य और सामाजिक न्याय-भावना में बाधक थीं। दोनों धर्मों के विरक महात्मा किस प्रकार आपस में तथा दूसरे धर्मों के साधारणजन-समाज में स्वच्छंदतापूर्वक समागम के द्वारा सौदाई, सहिष्णुता और उदारता के भावों को उत्पन्न करने का उद्योग कर रहे ८. निर्गुण
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