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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१०९

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पहला अध्याय थे, यह हम देख चुके हैं। इस समागम में एक ऐसे आध्यात्मिक प्रांदो- लन के बीज अंतहित थे, जिसमें समय की सब समस्याएँ हल हो सकतीं; क्योंकि इसी समागम में दोनों धर्मवाले अपने-अपने सधर्मियों को भूलें समझना सीख सकते थे, और यहीं दोनों धर्म एक दूसरे के ऊपर शांत रूप से प्रभाव डाल सकते थे । जब समय पाकर धीरे-धीरे विकसित होकर यह आध्यात्मिक आंदोलन निर्गुण संप्रदाय के रूप में प्रकट हुश्रा तो मालूम हुआ कि केवल एक से सुख-दुख, हर्ष-विषाद और पाशा- श्राकांक्षाओं के कारण ही हिंदू-मुसलमान एक नहीं हैं, बल्कि उनके धार्मिक सिद्धांतों में भी, जो इस समम दोनों जातियों को एक दूसरे से बिलकुल विलग किए हुये थे, कुछ समानता थी । अनुभव से यह देखो गया कि समानता की बातें मूल तत्व से संबंध रखती थीं और असमानताएँ, जो बढ़ा-बढ़ा कर बताई जाती थीं और जिन पर अब तक जोर दिया जा रहा था, केवल बाह्य थीं। दोनों धर्मों के संघर्ष से जो विचार-धारा उत्पन्न हुई, उसी ने उस संघर्ष की कटुता को दूर करने का काम भी अपने ऊपर लिया । सम्मिलन की भूमिका का मूल आधार हिंदुओं के वेदांत और मुसलमानों के सूफी मत ने प्रस्तुत किया । सूफी मत भी वेदांत ही का रूप है, जिसमें उसने गहरे रंग का भावुक बाना पहन लिया था और इस्लाम की भावना पर इस प्रकार व्याप्त हो गया था कि उसमें अजनबीपन जरा भी न रहा और उसे वहाँ भी मूल तत्व का रूप प्राप्त हो गया। इस नवीन दृष्टिकोण की पूरी अभिव्यक्ति कबीर में मिली, जो मुसलमान मा-बाप से पैदा होने पर भी हिंदू साधुओं की संगति में बहुत रहा था। स्वामी रामानंद के चरणों में बैठकर उसने ऐकांतिक प्रेम-पुष्ट वेदांत का ज्ञान प्राप्त किया था और शेख तकी के संसर्ग में सूफी मत का । सूफी मत और उपासना-परक वेदांत दोनों ने मिलकर कबीर के मुख से घोषित किया कि परमात्मा एक और अमूर्त है। वह बाहरी कर्मकांड के द्वारा अप्राप्य है, उसकी