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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/११९

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दूसरा अध्याय सांप्रदायिक मत का खण्डन करने के लिए जैसे दृढ़ प्रमाणों की आवश्यकता होती है, वैसे प्रमाण दोनों में किसी ने नहीं दिये। अतएव उनका जन्मस्थान प्रयाग ही में मानना उचित है। कहते हैं कि पहले पहल इन्होंने किसी वेदान्ती के पास काशी में शांकर अद्वैत की शिक्षा पाई । परंतु इनके अल्पायु योग थे। स्वामी राघवानन्द भी, जो रामानुज की शिष्यपरंपरा में थे (रामानुज- देवाचार्य-राघवानन्द) और बड़े योगी थे, काशी में रहते थे। उन्होंने रामानन्द को योग-साधन सिखाकर उन्हें आसन्न मृत्यु से बचाया। जिस समय मृत्यु का योग था उस समय रामानन्द को उन्होंने समाधिस्थ कर दिया और वे मृत्यु-मुख से बच गये। अतएच अद्वैती गुरु ने कृतज्ञता-वश अपने चेले को उन्हीं को सौंप दिया। रामानन्दजी बड़े प्रसिद्ध हुए। आबू और जूनागढ़ की पहाड़ियों पर उनके चरण-चिह्न मिलते हैं और पिछले स्थान पर उनकी एक गुफा । उन्होंने स्वयं अपना अलग पन्थ चलाया जिसके एक सम्भच कारण का उल्लेख पिछले अध्याय में हो चुका है, किन्तु उनकी अर्द्धती शिक्षा का भी इसमें कुछ भाग जरूर रहा होगा। उनके वास्तविक सिद्धान्त क्या थे, इसका पता लगाना बहुत कुछ कठिन काम हो गया है। मालूम होता है कि उन्होंने भक्ति, योग और अवरत वेदान्त की अनुपम संसृष्टि की। डाकोर से सिद्धान्त पटल नामक एक छोटी सी पुस्तिका निकली है, जो स्वामी रामानन्दजी की कही जाती है। इनमें सत्यनिरंजन तारक, विभूति पलटन, लँगोटी आड़बन्द, तुलसी, रामबीज आदि कई विषयों के मन्त्र हैं। केवल यज्ञोपवीत का मन्त्र संस्कृत में है, अन्य सब सधुक्कड़ी हिंदी में । इस ग्रन्थ में नाथपन्थ और वैष्णव मत की पूर्ण संसृष्टि दिखाई देती है। विभूति, धूनी, झोली आदि के साथ-साथ इसमें शालिग्राम तुलसी आदि का भी श्रादर किया गया है । यहाँ पर केवल एक मन्त्र देना उचित होगा जिससे इस बात की पुष्टि होगी--