५० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय था। 'वेस्कट' साहब ने भी इस ग्रंथ के आधार पर अपने कबीर ऐण्ड दि कबीर पंथ में बड़े जोर-शोर से इस मत का समर्थन किया है। परंतु दविस्ताँ का साक्ष्य उनकी सरगर्मी से कहीं अधिक मूल्यवान है । इति- हासकार मुहसनफनी अकबर के समय में हुआ था ! रामानंद के समय को पहले से पहले ले जाने पर भी मुहसनकनी और उनके समय में सवा- डेढ़ सौ वर्ष का अंतर रहता है। अतएव उन्होंने जिन जनश्रुतियों के आधार पर यह लिखा है, वे आजकल की जनश्रुतियों से अधिक प्रामाणिक हैं। शेख तकी कबीर के गुरु थे, इस संबंध में किसी इतनी प्राचीन जनश्रुति का होना नहीं पाया जाता। इस बात की भी आशंका नहीं हो सकती कि मुहसनफनी ने पक्षपात के कारण ऐसा लिखा हो। मुहसनफनी हो ने नहीं, और लोगों ने भी इस बात का उल्लेख किया है कि कबीर रामानंद के चेले थे। नाभाजी ने सं० १६४२ के लगभग भक्तमाल की रचना की थी। उसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कबीर को रामानंद का चेला लिखा है। उनसे एक-दो पीढ़ी पहले प्रोड्छेवाले हरीराम शुक्ल हो गये थे, जो साहित्य-संसार तथा संत- समुदाय में 'न्यास' जी के नाम से प्रख्यात हैं। इनके संबंध में यह ख्याति चली आती है कि ४५ वर्ष की अवस्था में ये संवत् १६१८ में राधावल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी हितहरिवंश जी के शिष्य हुए थे। हितहरिवंश जी का जन्म-संवत् देर से देर में मानने से संवत् १५५६ ठहरता है, यद्यपि सांप्रदायिक मत के अनुसार उनका जन्म १५३० में हुआ था । अतएव व्यास जी का संसर्गः ऐसे लोगों के साथ था जिनके समय के प्रारंभ तथा कबीर के समय के अंत में प्राधो शताब्दी से अधिक का अंतर नहीं था। उनसे इस संबंध में व्यासजी 2 'शिवसिंहसरोज', पृ० ५०७ ।
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