दूसरा अध्याय आकांक्षा को पूर्ण कर सकता था, जिसके उपदेश से कबीर को मालूम हुआ कि जिसको ढूढने के लिए हम वाहर भटकते फिरते हैं वह परमात्मा तो हमारे ही शरीर में निवास करता है। यह साधु स्वामी रामानंद थे। कहते हैं कि रामानंद पहले मुसलमान को चेला बनाने में हिचके । इस पर कबीर ने एक युक्ति सोची। रामानंद जी पंचगंगा घाट पर रहते थे और सदैव ब्राह्म-मुहूर्त में गंगास्नान करने जाया करते थे। एक दिन जब कबीर ने देख लिया कि रामानंद स्नान करने के लिए चले गये तो सीढ़ी पर लेट कर वह उनके लौटने की बाट जोहने लगा। रामानंद लौटे तो उनका पाँव कबीर के सिर से टकरा गया। यह सोचकर कि हमसे बिना जाने किसी का अपकार हो गया है, रामानंद 'राम राम' कह उठे। कबीर ने हर्षोत्फुरज होकर कहा कि किसी तरह आपने मुझे दीक्षित कर अपने चरणों में स्थान तो दिया । उसके इस अनन्य भाव से रामानंद इतने प्रभावित हो गये कि उन्होंने उसे तत्काल अपना शिष्य बना लिया । मुहसिनफनी काश्मीरवाले के लिखे फारसी इतिहास ग्रन्य तवारीख दविस्ताँ से भी यही बात प्रकट होती है। उसमें लिखा है कि कबीर जोलाहा और एकेश्वरवादी था। अध्यात्म-पथ में पथप्रदर्शक गुरु की खोज करते हुए वह हिंदू साधुओं और मुसलमान फकीरों के पास गया और कहा जाता है कि अंत में रामानंद का चेला हो गया। परंतु कुछ लोग रामानंद को न मानकर शेख तकी को कबीर का गुरु मानते हैं । इस मत का सबसे पहला उल्लेख खजीनतुल आसफिया में मिलता है, जिसे मौलवी गुलाम सरबर ने सन् १८६८ ई० में छपवाया
- जिस कारनि तटि तीरथ जाहीं। रतन पदारथ घटही माहीं।
-वही, १०२, ४२। x 'कबीर ऐंड दि कबीर पंथ' में उद्धृत, पृ० ३७ ।