६२ हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय भी हैं जो कबीरपंथ से अपना संबंध भूल गये हैं। पहाड़ के डोम प्रायः निरंकारी हैं। उनकी पूजाओं में कबीर का नाम आता है । पहाड़ में प्रचलित झाड़-फूंक के मंत्रों में कबीर की गिनती सिद्धों में की गई है। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने स्वयं कहा है 'विद्या न पढ़ौं, वाद नहिं जानौं' । अतएव उनकी कविता साहित्यिक नहीं है । उसमें सत्यनिष्ठा का तेज, दृढ़ विश्वास का बल और सरलहृदयता का सौंदर्य है। बाबू श्यामसुन्दर दास-द्वारा संपादित कबीर-ग्रन्थावली में आई हुई साखी, पद और रमैणी में उनकी निर्गुण वाणी बहुत कुछ प्रमाणित है । संपूर्ण बीजक भी प्रमाणित नहीं जान पड़ता । उनकी कुछ कविताओं का संग्रह सिखों के आदिग्रंथ में भी हुआ है । इनके अतिरिक्त भी और कई ग्रंथ कबीर के नाम से प्रचलित हैं जो कबीर के नहीं हो सकते । उनके बहुत से ग्रंथ धर्मदासी शाखा के महंतों और साधुओं के बनाये हुए हैं। उनके ग्रन्थों की प्रमाणिकता का विषय निर्गुण साहित्य नामक अध्याय में लिया जायगा। धर्मदासजी की कविता में यद्यपि वह अोज और तीक्ष्णता नहीं है जो कबीर की कविता में, फिर भी वह कबीर की कविता से अधिक मधुर और कोमल है। उन्होंने अधिकतर प्रेम की पीर की अभिव्यंजना की है। उनकी शब्दी का कबीरपंथ में बहुत मान होता है। कबीर की मृत्यु के हकीस वर्ष बाद सं० १५२६ (१४६६ ई.) में लाहौर के समीप तबवंडी नामक एक छोटे से गाँव में एक बालक का जन्म हुमा जिसके भाग्य में कबीर के सत्य-प्रसारक आंदोलन के नेतृत्व का भार ग्रहण करना लिखा था । यह बालक नानक था। उसके पिता का नाम कल्लू और माता का तृप्ता था। बहुत छोटी अवस्था में उसका विवाह कर ® क० प्र०, १० ३२२, १८७ । ३. नानक
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