दूसरा अध्याय दोन दरवेश पाटन के रहनेवाले सूफी साधु थे जिन्होंने सब तरफ से निराश होकर अपने हृदय की शांति के लिए निर्गुण भक्ति को लहर में डुबकी लगाई । वे पढ़े-लिखे बहुत नहीं थे। फारसी ८. दीन दरवेश का उनको कुछ ‘मोटा सा ज्ञान था। कितु सत्य की खोज में वे लगन के साथ लगे और अपनी प्राध्या- त्मिक शक्तियों को विकसित करने का उन्होंने खूब प्रयास किया । सत्त्य की खोज में वे पहले मुसलमानी तीर्थस्थानों में गये, फिर हिंदू तीर्थ- स्थानों में । प्रत्येक पूर्णिमा को वे बड़ी भक्ति-भावना के साथ सरस्वती में स्नान किया करते थे। परन्तु सब व्यर्थ । अन्त में उस दिव्य ज्योति को उन्होंने अपने हृदय में ही, पूर्ण प्रकाश के साथ, चमकते हुए देखा। उन्हें अनुभव हुआ कि इस ज्योति का जगमग प्रकाश हमेशा हमारे हृदय को प्रकाशमान किये रहता है। उसके दर्शन के लिए केवल दृष्टि को अंतर्मुख कर देने को आवश्यकता होती है । अ.ने हृदय के उद्गारों को व्यक्त करते हुए उन्होंने बहुत सुन्दर कुडलिया छंद लिखे हैं । कहा जाता है कि उन्होंने सवा लाख कुंडलिया लिखी थीं। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ महामहोपाध्याय पं० गोरीशंकर हीराचंद श्रोझा के पास उनकी बानी का एक संग्रह है, परन्तु अोझा जी कहते हैं कि इस संग्रह में उनकी बानी की सख्या इसके शतांश भी नहीं है। किंतु इधर-उधर संतों के संग्रहों में इनकी कुछ वाणो मिलती है। इनकी कविता सादी, भाषा सरल तथा भाव सीधे हैं। इनका समय विक्रम की अठारवीं शताब्दी का मध्य है। यारो साहब एक मुसलमान संत थे। इतका समय संवत् १७४३ से १७८० तक माना जाता है। इनकी रत्नावली बड़े भव्य भावों से पूर्ण है। आध्यात्मिक संयोग और वियोग की इनकी
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