हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय की भी इन्होंने बड़ी महिमा गाई है। परन्तु इनके राम अवतारी राम नहीं थे। मजूकदास ने उक्तियाँ भी बहुत अच्छी-अच्छी कही हैं। कबीर के नाम से यह दोहा प्रसिद्ध है- चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय । दोउ पाटन के बीच में, साबित रहा न कोय । 'इसके जवाब में मलूकदास ने कहा है- इधर उधर जेई फिरै तेई पीसे जायें। जे मलूक कोली लगैं, तिनको भय कछु नाहिं ।। एक जगह कबीर ने कहा है कि कोयला सौ मन साबुन से धोने पर भी सफेद नहीं होता । किसी ने इसके जवाब में कहा है कि अगर कोयला जनने के लिए तैयार हो जाय तो उसके सफेद होने में कोई अड़चन नहीं। हो सकता है कि यह भी मलूक का ही हो। मलूकदास विवाहित थे, किंतु पहले ही प्रसव में उनकी स्त्री एक कन्या जनकर मर गई । उनके बाद कड़ा में उनके भतीजे रामसनेही गद्दी बैठे । तदुपरांत कृष्णसनेही, कान्हग्वाल, ठाकुरदास, गोपालदास, कुंजविहारीदास, रामसेवक, शिवप्रसाद, गंगाप्रसाद तथा अयोध्याप्रसाद, यह परंपरा रही। आजकल मलूक के सभी वंशज महंत कहलाते हैं, परन्तु गद्दी अयोध्याप्रसाद जी ही में समाप्त समझी जाती है। प्रयाग में इनकी गद्दी का संस्थापक दयालदास कायस्थ था, इस्फहाबाद में हृदयराम, लखनऊ में गोमतीदास, मुल्तान में मोहनदास, सीताकोयल में पूरनदास और काबुल में रामदास । इनके संप्रदाय का एक स्थान और 'राम जी का मन्दिर' वृन्दावन में केशी घाट पर भी है। इनके संप्रदाय में गृहस्थजीवन निषिद्ध नहीं है परन्तु गद्दी मिलने पर महंत को ब्रह्मचर्यमय जीवन -बिताना पड़ता है, यद्यपि रहता वह अपने बाल-बच्चों ही में है। पर
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