दूसरा अध्याय इधर-उधर साधु-संतों की रचनाओं में उसमें से और भी अवतरण मिल जाते हैं। संजबानी-संपादक के अनुसार इनका समय संवत् १७७४ से १८३५ तक है। इनका दावा है कि स्वयं कबीर साहब ने मुझे संत-मत में दीक्षित किया है । संतबानी माला के संपादक ने तुलसी साहब की एक जीवनी के श्राधार पर कहा है कि वे रघुनाथराव के जेठे लड़के और बाजीराव द्वितीय के बड़े भाई थे। संसार में मिथ्या के भार १८.तुलसीसाइब का वहन उन्हें अभीष्ट नहीं था। इसलिये राजसिंहा- सन को अपने छोटे भाई के लिये छोड़कर वे प्राध्या- स्मिक राज्य को अधिकृत करने के लिए घर से निकल पड़े। रमते-रमाते अंत में ये हाथरस में बस गये । जब अगरेजों के कारण बाजीराव द्वितीय . बिठूर में आकर बस गये, तब कहते हैं कि तुलसी साहब एक बार उनसे मिले थे । इनका घर का नाम श्यामराव बतलाया जाता है, परंतु इति- हास रघुनाथराव के सबसे ज्येष्ठ पुत्र को अमृतराव के नाम से पहिचानता है। हो सकता है कि उसके दो नाम रहे हों। तुलसी साहब अक्खड़ स्वभाव के आदमी थे, पर थे पहुँचे हुए संत । कहते हैं, एक बार उनके एक धनी श्रद्धालु ने अपने घर में उनकी बड़ी प्राव-भगत की। भोजन करते समय उसने उनके सामने संतान के अभाव का दुखड़ा गाया और पुत्र के लिए वरदान माँगा । तुलसी साहब बिगड़कर बोले कि "तुम्हें यदि पुत्र की चाह है तो अपने सगुण परमात्मा से माँगो। मेरे भक्त के यदि कोई बच्चा हो तो मैं तो उसे भी ले लूँ ।” और यह कहकर बिना भोजन समाप्त किये चल दिये । निर्गुण संप्रदाय में, समय की प्रगति के साथ, जो बाहरी प्रभाव पा गये थे उनसे उसे मुक्त करने का भी उन्होंने प्रयत्न किया। निर्गण पन्थ . के अनुयारियों को उन्होंने समझाया कि एक संप्रदाय के रूप उसका प्रवर्तन नहीं किया गया था। उस समय तक निर्गुण पंथ के अाधार पर कई : में
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