पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१८

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(च) निर्गुए संप्रदाय के कविओं के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न लेखकों ने लिखा है, किन्तु, किसी ने भी इन सभी पर एक संप्रदाय के रूप में सुव्यवस्थित ढंग से विचार नहीं किया है । निर्गुण संप्रदाय के उपदेशों का सुव्यवस्थित अध्ययन गंभीर भारतीय संस्कृति के समझने में सहायक हो सकता है। हमारे सांस्कृतिक विकास की शृंखला की यह एक महत्वपूर्ण कड़ी है। परन्तु आज तक यह खो गई सी जान पड़ती रही और इसका अभाव इसके अंतिम होने के कारए उतना खटकता न था। लोग साधारणतः यही समझते रहे कि इन प्रशिक्षित संतों के दार्शनिक विचार अस्पष्ट अपरिणमित क्रमरहित और असंबद्ध । किन्तु यह स्थिति वास्तविक नहीं है। इसके विपरीत निर्गुण संप्रदाय एक ऐसी विचारधारा प्रस्तुत करता है जो सुसंगत है और उसके उपदेशों के आधार पर एक विशिष्ट पद्धति का निर्माण किया जा सकता है। मुझे विश्वास है कि मैंने इस बात को भली भांति स्पष्ट कर दिया है। फिर भी ऐसा दावा नहीं किया जाता कि इन संतों ने जान बूझ कर किसी सुव्यवस्थित पद्धति वा पद्धितयों की रचना की थी। क्योंकि ये दार्शनिक न होकर ऐसे आध्यात्मिक महापुरुष मात्र थे जिनकी अज्ञात विचारधारा ने इनके धार्मिक भावों के लिए एक पृष्ठभूमि प्रस्तुत कर दी थी। इनके द्वारा व्यक्त किया गया धार्मिक भाव सीधा सादा आडम्बर- हीन एवं व्यापक है। परंपरागत धर्मों की व्यर्थ बातों की उपेक्षा करते हुए इन्होंने वास्तविक धर्म के मूल तत्व को सुस्पष्ट दिया है जिसका सार कबीर के शब्दों में इस प्रकार दिया जा सकता है। "परमात्मा के प्रति सच्चे रहो और दूसरों के साथ सीधा व्यवहार करो।" इसी सारग्राहिता की भावना के कारण कबीर ने विभिन्न -साँई सेंती साँच चलि, औरा सू सुध भाइ। भावै नाँबे केस करु, भावै धुरड़ि मुड़ाइ ॥ कबीर ग्रंथावली (४६-१३)।