तीसरा अध्याय १०७ फेर में मत पड़, वह अपने को. आप जानता है, तू केवल उसे बड़ा कह । परंतु कुछ संत ऐसे भी हैं जो, जैसा आगे चलकर मालूम होगा, इस निर्विकल्प भावना तक पहुँच ही नहीं पाये हैं। जहाँ पर वे पूर्ण अद्वैत ब्रह्म का सा वर्णन करते हैं, वहाँ पर निर्विकल्प अवस्था के स्थान पर उनका अभिप्राय परमात्मा की अद्वितीय महत्ता से होता है। किंतु इसके विपरीत कबीर और कुछ अन्य संतों की ब्रह्म-भावना तो ऐसी सूक्ष्म है कि वे उसे 'एक' भी कहना नहीं चाहते । कोई वस्तु 'अनेक' के ही विरुद्ध 'एक' हो सकती है। परंतु ब्रह्म तो केवल है। वह 'एक' कैसे हो सकता है ? कबीर ही के शब्दों में परमात्मा को एक कहना- एक कहूँ तो हैं नहीं, दोय कहूँ तो गारि । है जैसा तैसा रहै, कहै कबीर विचारि ।। क्योंकि वह जैसा है वैसा, जान सकता है, हम तो इतना ही कह सकते हैं कि केवल वही है और कोई है नहीं।x दाद भी कहते हैं, "चर्म- दृष्टि से अनेक दिखाई देते हैं, आत्म-दृष्टि से एक, परन्तु साक्षात् परिचय तो ब्रह्म-दृष्टि से होता है, जो इन दोनों के परे है।"= फिर कहा
- लेखा होइ लिखिये, लेखै होइ बिणास ।
नानक बड़ा आखिये, आपै जाणे आप ॥ -'जपजी', २२ । + अब मैं जाणि बौरे केवल राइ की कहांणीं। -क० ग्रं॰, पृ० १४३, १६६ । x वो है तैसा वोही जान, वो हि पाहि, आहि नहिं पाने । -वही, पृ० २४१ ।
- चमदृष्टी देखे बहुत करि, प्रातमदृष्टी एक ।
ब्रह्मदृष्टी परिचय भया, (तब ) दादू बैठा देख ।। -बानी (ज्ञान-सागर), पृ. ४८ ।