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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१९४

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११४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय है-पहले के संतों ने परमतत्व या परमात्मा के विशेषण मानकर उसके पर्याय के रूप में ग्रहण किया है। विभिन्न लोक होने के बदले वे 'नेति नेति' प्रणाली-द्वारा पूर्ण पुरुष को ही देखने के विभिन्न दृष्टि-कोण हैं । निरंजन से भी (अंजन अथवा माया से रहित), जिसे पिछले संत काल-पुरुष का नाम मानते हैं, कबीर का अभिप्राय परमात्मा से ही था, यह इस पद से स्पष्ट होता है- गोब्यंदे तू निरंजन, तू निरंजन, तू निरंजन राया। तेरे रूप नाही, रेख नाहीं मुद्रा नाहीं माया। तेरी गति तूही जाने कबीर तो सरना ।। अभ्यास-मार्ग उन्नति के सोपानों के रूप में इन पदों की चाहे जो सार्थकता मानी जाय, परन्तु इसमें संदेह नहीं कि लोक अथवा पुरुष रूप में उनका कोई दार्शनिक महत्व नहीं। निर्गुण संतों को सर्वत्र परमात्मा ही के दर्शन होते हैं। यदि कोई पूछे कि “यदि सत्ता 'एक' ही की है तो अनेक के सम्बन्ध में क्या कहा जायगा ? क्या यह समस्त चराचर सृष्टि, जो इन्द्रियों ४. परमात्मा, के लिए उस अलक्ष्य परमात्मा से भी वास्तविक आत्मा और है, मिथ्या है ? क्या उसका अस्तित्व नहीं ?" तो वे सब एक स्वर में उत्तर देंगे कि उनकी भी सत्ता है, वे भी वास्तविक हैं, परन्तु परमात्मा से अलग उनकी कोई सत्ता अथवा वास्तविकता नहीं। उसी की सत्ता में उनकी सत्ता है, उसी की वास्तविकता में उनकी वास्तविकता, क्योंकि सबमें परमात्मा सार रूप से विद्यमान है। छोटे से छोटे जीव, तुच्छ से तुच्छ पदार्थ सबमें परब्रह्म का निवास है। कठिनाई केवल इतनी है कि जब तक हम इंद्रिय-ज्ञान पर आश्रित बुद्धि की माप से सब पदार्थों को मापने का प्रयत्न जड़ पदार्थ

  • क० ग्रं॰, पृ० १६२, २१६ ।