तीसरा अध्याय ११५ करते रहते हैं, तब तक उनके अंतरतम में प्रवेश कर उनको पूर्ण रूपः में नहीं समझ सकते। परन्तु इस कथन से सब संतों का एक ही अभिप्राय न होगा। हमें उनमें कम से कम तीन प्रकार की दार्शनिक विचार-धाराओं के स्पष्ट दर्शन होते हैं । वेदांत के पुराने मतों के नाम से यदि उनका निर्देश करें तो उन्हें अद्वैत, भेदाभेद और विशिष्टाद्वैत कह सकते हैं। पहली विचार- धारा को माननेवालों में कबीर प्रधान हैं। दादू, सुंदरदास, जगजीवन- दास, भीखा और मलूक उनका अनुगमन करते हैं। नानक और उनके अनुयायी भेदाभेदी हैं। और शिवदयालजी तथा उनके अनुयायी विशिष्टा- द्वैती । प्राणनाथ, दरियाद्वय, दोन दरवेश, बुल्लेशाह इत्यादि शिवदयाल की ही श्रेणी में रखे जा सकते हैं। (कबीर आदि अद्वैती विचार-धारावालों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के भीतर परमात्म तत्व पूर्ण रूप से विद्यमान है। रहस्य केवल इतना ही है कि वह इस बात को जानता नहीं है) इस बात का अनुभव तभी हो सकता है, जब वह मन और सामान्य बुद्धि के क्षेत्र से ऊपर उठ जाता है। मनुष्य (जीवात्मा) और परमात्मा में पूर्ण अद्वैत भाव है- किया संदेह सब जीव ब्रह्म नहिं भिन्न । ॐ अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाने के कारण वह अपने श्रापको ब्रह्मेतर समझता है। आत्मतत्व को भूलकर वह पंचभूतों की ओर दृष्टि डालता है और उन्हीं में अपने वास्तविक स्वरूप की पूर्णता मानता है--सूधी ओर न देखई, देखै दर्पन पृष्ट । + यही देहाध्यास उसके भ्रम की जड़ है । जब व्यक्ति दृश्य आवरणों के भ्रम में न पड़कर, नाम और रूप को भेदकर, अपने अंतरतम में दृष्टि डालता है तब उसे मालूम होता है कि मैं तो वस्तुतः एकमात्र सत्तत्व हूँ। तब उसे विदित होता है कि किस प्रकार मैं अपने आपको ® सुन्दरदास, सं० बा० सं०, भाग १, पृ० १०७ । + वही।
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