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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१९६

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११६ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय भ्रम में डाले हुए था-सुंदर भ्रम थे दोय थे +--- -और उसे तत्काल अनुभव हो जाता है कि मैं पूर्ण ब्रह्म केवल हूँ ही नहीं, बल्कि कभी उसके अतिरिक्त कोई दूसरा पदार्थ था ही नहीं । इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण ब्रह्म है । उसके इस तथ्य से अनभिज्ञ होने और उसकी अनुभूति न कर सकने से भी उसके वास्तविक स्वरूप में कोई अंतर नहीं श्राता । वह जाने चाहे न जाने, पर ब्रह्म तो वह है ही। पांचभौतिक जगत् के बंधनों से मुक्त होने के लिए यही अपरोक्षानुभूति अपेक्षित है । संत-संप्रदाय के इन अद्वौती संतों ने इस सत्य को स्वयं अपने जीवन में अनुभूत कर लिया था। कबीर ने इस सम्बन्ध में अपने भाव बड़ी दृढ़ता तथा स्पष्टता के साथ व्यक्त किये हैं। प्रात्मा और परमात्मा की एकता में उनका अटल विश्वास था । इन दोनों में इतना भी भेद नहीं कि हम उन्हें एक ही मूल-वस्तु के दो पक्ष कह सकें । पूर्ण ब्रह्म के दो पक्ष हो ही नहीं सकते। दोनों सर्वथा एक हैं। अद्वैतता की इसी अनुभूति के कारण वे समस्त सृष्टि में अपने आपको देखते थे । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में उद्घोषित किया था हम सब माहिं संकल हम माहीं । हम थे और दूसरा नाहीं ।। तीन लोक में हमारा पसारा । प्राधागमन सब खेल हमारा ॥ खट दर्शन कहियत हम भंखा । हमहिं अतोत रूप नहिं रेवा ।। हमहीं आप कबीर कहावा । हमहीं अपना आप लखावा ।। जो कबीर को, अंडरहिल के समान रामानुज के "विशिष्टाद्वैतवादी सिद्धांत' का और फर्कहर के समान निंबार्क के 'भेदाभेद' का समर्थक मानते हैं वे भ्रम के कारण कबीर के संपूर्ण विचारों पर समन्वित रूप से विचार नहीं करते। कबीर ने पूर्णब्रह्म का एक ही दृष्टिकोण से + सुन्दरदास, सं० बा० सं०, भाग १, पृ० १०७ ।

  • क० ग्रं० पृ० २०१, ३३२ ।