११८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय से कोई यह न समझ ले कि इस मिलन में प्रात्मा को परमात्मा से कम महत्व दिया गया है। इसलिए कबीर ने बूंद और समुद्र का एक दूसरे में पूर्णतः मिल जाना कहा है- हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ । बूंद समानी समुद में, सो कत हेरी जाइ । हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ । समुद समाना बूद में, सो कत हेरया जाइ ॥+ परंतु मुक्त पुरुष के दृष्टिकोण से मिलन का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि कभी भेद तो था ही नहीं जिससे मुक्ति होने पर मिलन कहना संगत ठहरे । मोक्ष तो केवल दोनों की नित्य अवतता की अनुभूति मात्र है, जिससे अज्ञान का प्रावरण मनुष्य को वंचित रखता है। इसीलिए कबीर ने अपनी मुक्ति के संबंध में परमात्मा के प्रति ये उद्गार प्रकट किए थे- राम ! मोहि तारि कहाँ लै जैहो । सो बैकुंठ कहौ धौं कैसा जो करि पसाव मोहिं देही ।। जो मेरे जिउ दुइ जानत हो तो मोहिं मुकति बतावौ । एकमेक ह रमि रह्या सबन मै तौ काहे को भरमावौ ॥ तारन तिरन तब लग कहिए, जब लग तत्त न जाना । एक राम देख्या सबहिन मैं, कहै कबीर मन माना ॥ इस गहन अनुभूति की झलक इस श्रेणी के संतों की वाणियों में यत्र-तत्र मिल जाती है, क्योंकि वे दादू के शब्दों में अपने ही अनुभव से इस बात को जानते थे कि- जब दिल मिला दयाल सों, तब अंतर कछ नाहिं । जब पाला पानी कौं मिला त्यौं हरिजन हरि माहिं ॥x + क० ग्रं०,पृ० १७, ७, ३ और ४ । ॐ वहो, पृ० १०५, ५२ । x सं० बा० सं०, भाग १, पृ० ६२ ।
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