पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१९९

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तीसरा अध्याय ११६ आत्मानंद में लीन दादू को सहज रूप परब्रह्म को छोड़कर और कोई कहीं दिखलाई ही नहीं देता है- 'सदा लीन आनंद में, सहज रूप सब ठौर । दादू देखे एक कौ, दूजा नाहीं और ॥+ इसी स्वर में मलूकदास भी कहते हैं- साहब मिलि साहब भये, कछु रही न तमाई । कहैं मलक तिस घर गये जहँ पवन न जाई ।% भीखा भी कहते हैं- भीखा केवल एक है, किरतिम भया अनंत। इस अद्वैतानंद की जगजीवनदास ने इस प्रकार उत्साहपूर्ण अभि- व्यंजना की है- आनंद के सिंध में पान बसे, तिनको न रह्यौ तन को तपनो। जब आपु में प्रापु समाय गये, आपु लह्यो अपनो॥ आपु लह्यो अपनो तब आपन्वै जाप रह्यो जपनो। जब ज्ञान को भान प्रकास भयो जगजीवन होय रह्यो सपनो ॥ सुंदरदास को तो शांकर अद्वैत का पूर्ण शास्त्रीय ज्ञान था जो उनकी रचनाओं से पूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है । अद्वत ज्ञान के सम्बन्ध में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है- परमातम अरु प्रातमा, उपज्या यह अविवेक । सुन्दर भ्रन • दोय थे, सतगुरु कीये एक ॥x + बानी (ज्ञानसागर), पृ० ४२-४३ । = सं० बा० सं०, भाग २, पृ० १०४ ।

वही, भाग १, पृ० २१३ ।

® वही, भाग २, पृ० १४१ । ४ वही, भाग १, पृ० १०७ । तब पापु जब आपु N 2