पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२१

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तत्व के रूप में भी करते हैं। परमतत्व को शून्य कहने में नागार्जुन का यह अभिप्राय था कि वह पूर्णतः सारहीन है और उसके लिए 'सत्' अथवा असत् शब्दों का प्रयोग नहीं किया जा सकता । परन्तु शंकराचार्य का अनुसरण करके ( जिन्होंने नागार्जुन के सूक्ष्म तर्कों का प्रयोग, औपनिषदिक उपदेशों के अंतिम लक्ष्य-स्वरूप अपने आत्मवाद के समर्थन में किया था ) निर्गुगियों ने परमतत्व को सत मान लिया । कुछ जीवित निर्गुणी जिनके साथ मैंने इस शब्द के विषय में चर्चा की है इसका संबंध योगियों की उस निःसंज्ञता के साथ जोड़ते हैं जो उन्हें समाधि की दशा में स्थूल विषयों के प्रति हुआ करती है । राधास्वामी-साहित्य में शून्य एवं महाशून्य के प्रयोग उन रिक्त स्थानों के लिए किये गये हैं जहाँ किसी का निवास नहीं है और जिनसे होकर प्रत्येक साधक को अपनी आध्यात्मिक यात्रा में अग्रसर होना पड़ता है । इसी प्रकार प्रासंग का 'विज्ञान' शब्द भी शंकराचार्य के अद्वैतवाद से प्रभावित होता हुआ विवर्त का अर्थ देने लगा है । निर्वाण शब्द भी इसमें आकर अपने मूल बौद्ध भाव विनाश को नहीं व्यक्त करता, प्रत्युत मुक्ति का समानार्थक हो गया है। यह भली भाँति स्पष्ट हो जाता है कि इसका कारण कुछ सीमा तक वैष्णव आंदोलन रहा होगा, किंतु इस बात को लोग अभी तक नहीं समझ पायें हैं कि इसका सीधा सम्बन्ध नाथपंथियों की योगपद्धति से भी था। बात यह है कि कबीरपंथी लोग गोरखनाथ आदि योगियों के प्रति विरोध का भाव प्रकट करते हैं और यह विरोध ईसा की सोल- हवीं शताब्दी से भी पीछे का जान पड़ता है, जब कि गोरखनाथ के -सहज सुन्नि सब ठौर है; सब घट सबही माँहि । तहाँ निरंजन रमि रह्या, कोउ गुण व्याप नाहि ॥ दादू बानी, भा० १, पृ० १५, सा०५६ । .