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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२२

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प्रति सम्मान प्रदर्शित करनेवाले दादू-पंथ एवं साधु-सम्प्रदाय की स्थापना हुई थी। एक निबन्ध में जो काशी नागरी-प्रचारिणी-सभा के (दिसम्बर सन् १९३० वाले ) अधिवेशन में पढ़ा गया था और जो पीछे से उसकी पत्रिका ( 'नागरी-प्रचारिणी-पत्रिका' भा० ११, सं० ४, माघ वि० सं० १९८७ ) में प्रकाशित हुआ था, मैंने पहले- पहल दिखलाया था कि इस प्रकार का सम्बन्ध इन दोनों के बीच अवश्य रहा होगा । मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि इस सम्बन्ध के विषय में प्रकट की गई मेरी सम्मति के साथ हिंदी के विद्वान् व्यापक रूप से सहमत हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में मैंने उस सम्बन्ध को पूर्ण रूप से प्रतिपादित कर देने की चेष्टा की है। परन्तु इस बात के कारण यह कदाचित् सरलतापूर्वक समझ लिया जा सकता है कि निर्गुणमत और विशेषकर कबीर की विचारधारा के निर्माण में स्वामी रामानन्द का हाथ कम रहा होगा और काल- गणना के कारण उपस्थित होने वाली कठिनाई से लोग इस भ्रम में पड़ सकते हैं कि इस संप्रदाय के साथ उनका कुछ भी सम्बन्ध न था। किंतु ऐसा मान लेना सत्य के नितांत प्रतिकूल जाना होगा, क्योंकि रामानन्द में ही प्राकर नाथमत एवं वैष्णव संप्रदाय का स्पष्ट सम्सिलन हुआ था । +-साँस धर्यो कर बोध दियो गुर [ दादू ] जो मन गोरख सेसा ॥ दादू-शिष्य माधोदास का 'सद्गुणसागर' (८-२३) देखिये प्रस्तुत पुस्तक का परिशिष्ट तीसरा । +-इस बात के प्रमाण में रामानन्द रचित समझे जानेवाले और डाकोर से प्रकाशित हुए सिद्धांतपटल' का उदृरण दिया जा सकता है जिसमें वैष्णवों के सालिग्राम की स्थापना त्रिकुटी में