पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२१०

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. १३० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय कबीर भी कहते हैं-"नहिं ब्रह्मांड, प्यंड पुनि नाहीं पंच तत्त भी नाहीं।'+ "नहिं तन, नहिं मन, नहि अहंकारा, नहिं सत रज तम तीनि प्रकारा।"x कबीर जब बिना धड़ के एक वृक्ष का वर्णन करते हैं जो बिना फूले फलता है जिसकी न शाखाएँ हैं न पत्तियाँ, फिर भी जो पाठों दिशाओं में फैला हुआ है ( अथवा जो पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश, मन, चित्त, अहंकार के द्वारा फैला हुआ है), तो उनका अभिप्राय विश्व से ही रहता है। एक दूसरे पद में उन्होंने वृक्ष को अनंत-मूर्ति तथा अनंत-वाणि कहा है। बिना फल-फूल के भी भ्रमर (जीवात्मा) बाल्यावस्था से ही उससे अनुरक्त रहता है। इस भ्रमर को वास्तविक फल तब प्राप्त होता है जब ब्रह्मरंध्र में सहज-समाधि के द्वारा पृथ्वी, जल आदि तत्व सोख लिये जाते हैं और पेड़ अदृश्य हो जाता है । इस वृक्ष को असत्यता भगवद्गीता की अश्वत्थ भावना के सर्वथा क० ग्रं॰, पृ०, ६८, ३२ । x वही, पृ० १००, ३८ ।

  • तरवर एक पेड़ बिन ठाड़ा, बिन फूलां फल लागा।

साखा पत्र कछु नहिं वाके, अष्टगगन मुख बागा ॥ -क० ग्रं॰, पृ० १४३, १२५ । = तरवर एक अनंत मूरति सुरता लेहु पिछाणी । साखा पेड़ फूल फल नाहीं, ताकी अमृत वाणी । पुहुप वास भँवरा एक राता बारा ले उर धरिया । सोलह मंझे पवन झकोरै आकासे फल फलिया। सहज समाधि विरिष यह सींच्या, धरती जलह सोण्या। -वही पृ० १४३, १६६ ।