तीसरा अध्याय . १२६ व्यक्त होने के लिए अव्यक्त को माया का आवरण धारण करना ही पड़ता है। इसकी आवश्यकता तभी तक है जब तक कि जिज्ञासु साधक को ज्ञान के लिए मनःप्रेरित इंद्रियों पर अवलंबित रहना पड़ता है परन्तु जब वह इंद्रियों के ऊपर उठ जाता है तो इंद्रियातीत अव्यक्त का यह आवरण अपने आप हट जाता सृष्टि-विज्ञान का दार्शनिक दृष्टि से सर्वोत्तम विवेचन सांख्यशास्त्र में हुआ है। सांख्यदर्शन स्पष्ट ही द्वैत को लेकर चला है ; परन्तु व्यव- हार ही में सही वेदांत को भी उसे अंगीकार करना पड़ा है। हमारे निर्गुण संतों ने भी समस्त सांख्य-ज्ञान को अपनी विचारधारा में मिला लिया है। सांख्य की संख्याओं का उनकी कविताओं में बराबर सामना होता है । 'तीन' 'पाँच' 'पचीस' पद-पद पर दिखाई पड़ते हैं । इनसे अभिप्राय सत्, रजस्, तमस तीन गुणों, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश पंचतत्वों और पचीस प्रकृतियों से है जिनमें ऊपर कहे गये तीन गुण और पाँच तत्वों के अतिरिक्त शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श, पंच तन्मात्राएँ, इनका ज्ञान करनेवाली पंचेन्द्रियाँ और मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, मह- तत्व तथा प्रकृति और पुरुष सम्मिलित हैं। जगत् इनसे बना पर व्यवहार मात्र में, वस्तुतः नहीं ; क्योंकि परमार्थतः तो जगत् है ही नहीं। अतएव तीन, पाँच, पचीस की भी वास्तविक सत्ता नहीं है । सृष्टि- क्रम का वर्णन करते हुए संदरदास को आशंका हुई कि उनके शिष्य इनको सत् न मान लें इसलिए, उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि वे 'मिथ्या' तथा 'भ्रम-जाल' मात्र हैं- ब्रह्म ते पुरुष अरु प्रकृति प्रकट भई प्रकृति ते महत्तत्व अहंकार है । ऐसे अनुक्रम' से सिस्यन सों कहत सुंदर यह सकल मिथ्या भ्रमजार है ॥ अवश्य
- सुंदर विलास ।