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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२१९

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तीसरा अध्याय १३६ उसी नाम को फेर के लहर धरा लहर के कहे क्या नीर खोयम् ? जगत ही को फेरि सब जगत और ब्रह्म में ज्ञान करि देखि कबीर गोयम् ? * भीख़ा ने भी कहा है- नाम एक सोन पास गहना द्वैत भास ।+ अव्यक्त नित्य एकरस रहता है यद्यपि व्यक्त में सतत परिवर्तन दिखाई देता है। नाम और रूप का उदय अव्यक्त ही से होता है और अव्यक्त ही में वे लीन हो जाते हैं । सुन्दरदास स्पष्ट शब्दों में कहते हैं- सुन्दर जाने ब्रह्म में ब्रह्म जगत द्वै नाहिं । इस प्रकार धीरे-धीरे अपने अद्वैतवाद के द्वारा वे आदर्शवादी सर्वात्मवाद के उस उच्चतम शिखर पर पहुँच जाते हैं जहाँ जाकर सब कुछ ब्रह्म ही हो जाता है । 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' कहने में वे भी छांदो- ग्योपनिषत् का साथ देते हैं । सुन्दरदास के शब्दों में- ब्रह्म निरीह निरामय निगुण नीति निरंजन और न भासै । ब्रह्म अखंडित है अध ऊरध, बाहर भीतर ब्रह्म प्रकाशै ॥ ब्रह्महि सूछम थूल जहाँ लग, ब्रह्महि साहब ब्रह्महि दासैं । सुन्दर और कछू मति जानहु ब्रह्म हि देखत ब्रह्म तमासै ॥x सब कुछ ब्रह्म तो है पर केवल तत्वत: उस रूप में नहीं जिस रूप में वह दिखाई देता है, क्योंकि जो कुछ दिखाई देता है मायाकृत है, मिथ्या है। कबीर श्रादि विवर्तवादियों ने जिस दृश्य जगत् को केवल व्यावहा- रिक रूप में सत्य माना है उसे हमारे अन्य संत कवि वस्तुतः सत्य ® क० श०, ४, पृ० ८६६० । +सं० बा० सं०, २, पृ० २१३ । वही, १, पृ० १०८। ४ सुन्दर विलास