पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२१८

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C १३८ हिन्दी-काव्य में निर्गुण संप्रदाय अपने आपको इन आवरणों में छिपाकर हम अपने आप भूले हुए हैं-श्रापै श्राप भुलान 1x कबीर ने स्थिति को और भी स्पष्ट करने के लिए कहा है- झूठ झूठ वियापिया ( कबीर), अलख न लखई कोइ । झूठनि झूठ साँच करि जाना, झूठनि मैं सब साँच लुकाना ॥ झूठ में छिपे हुए इस सत्य का, असत्य के आवरण में छिपे हुए इस सत का अनुभव करना, ढूंढ निकालना ही निर्गुण संतों का परमोद्देश्य है । अनुभव की इस ऊँचाई पर पहुँचने पर व्यक्त जगत् का सारा महत्व विलीन हो जाता है, द्रष्टा को वह एक बीते हुए स्वप्न की भाँति भान होने लगता है। उसकी अस्थिरता उसे स्पष्ट हो जाती है, वह अनुभव करने लगता है। साँच सोइ जो थिरह रहाई । उपजे बिनसैं झूठ ह्व जाई ॥A इसी अनुभूति ने कबीर से कहलाया था- साधो एक आप जग नाहीं। दूजा करम भरम है किरतिम, ज्यों दरपन में छाही I+ संसार में एक के अतिरिक्त और सब दर्पण में की परछाई की तरह कृत्रिम है। लेकिन जो कृत्रिम है वह भी अधिष्ठान (मूल वस्तु) की सहज सत्ता को छीन नहीं सकता- दरियाव की लहर दरियाव है जी दरियाव और लहर में भिन्न कोयम् ? उठो तो नीर है बैठो तो नीर है कहो दूसरा किस तरह होयम् ? ४ क० ग्रं०, पृ० २२७ । वही, पृ० २२६ । A वही पृ० २३२ । +क० श०, १, पृ० ६६ ।