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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२२१

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तीसरा अध्याय १४१ जो कुछ पापिनै प्रापि साजियो, पापिनै रचिो नाऊँ। दुइ कुदरति साजियो, करि आसन दिठो चाउ ॥ इससे पता चलता है कि नानक भी परमात्मा की आनंदेच्छा को ही, सृष्टि-स्रजन का मूल कारण मानते हैं जो ‘एकोऽहं बहु स्याम' में निहित है। इन संतों की दृष्टि में भी माया मिथ्या है परन्तु सर्वथा अभाव अथवा अनस्तित्व के अर्थ में मिथ्या नहीं जैसा विवर्तवादी अद्वौतियों की दृष्टि में होता, परन्तु परिवर्तनशील और नाशवान् होने के अर्थ में। नहीं तो माया का वास्तविक अस्तित्व है, सृष्टि नाशवान् है सही, पर अनस्ति नहीं कह सकते । इसी से नानक ने जहाँ एक ओर कहा है- दी से सकल बिनासे ज्यों बादल की छाहीं । जनु नानक यह जग झूठा रहो राम सरनाहीं ॥+ तथा- न सूर ससि मंडलो । न सपत दीप नह जलो। अन्न पवण थिर न कुई । एक तुई एक तुई ।। -ग्रं० पृ० ७७ । वहाँ दूसरी ओर यह भी कहा है- साँचे तेरे खंड, साँचे ब्रह्मड, साँचे लोऊ, साँचे आकार। इसलिए गुरु अंगद ने पंच तत्वों का भी बड़े आदर से उल्लेख किया है- पवण गुरू पाणी पिता, माता धरनि महत्तु । दिन सु राति दुइ दाइ दाया, खेलै सगल जगत्तु ॥ -ग्रंथ पृ० ७८ ॥

  • ग्रन्थ, पृ० २५१ ॥

+ सं० बा० सं०, २, पृ० ५४ । x ग्रन्थ, पृ० २५ ।