पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२२२

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. १४२ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय परन्तु इन वास्तव-वादियों की विचार-परम्परा में साम्य का यहीं पर अन्त हो जाता है। यहाँ पर से उनमें दो अलग-अलग दृष्टिकोण हो जाते हैं ; क्योंकि 'जगत का उपादान कारण क्या है ?' इस प्रश्न को लेकर उनमें मतभेद है। भेदा-भेदी नानक सर्वात्मवाद की ओर अधिक झुके हुए हैं। अतएव उनके अनुसार परमात्मा सृष्टि का कर्ता और उपा- दान दोनों है- आपै पवन पाणी वैसंतरु आपै मेलि मिलाई हो । आपिन प्रापि साजिनो वाला, जो पद्य ऊपर उद्धृत किया गया है, उसमें भी नानक ने यह बात स्पष्टरूप से कह दी है कि वह अपने आप में से आपही सृष्टि की रचना करता है। स्थूलता की और विकसित होता हुआ परमात्मा स्वतः इस सृष्टि के रूप में परिणत हो जाता है यद्यपि वह अपने वास्तविक स्वरूप को भी नहीं छोड़ता है। विशिष्टाद्वैती शिवदयाल जगत् के उपादान को परमात्मा (राधा- स्वामी) से भिन्न मानते हैं। सृष्टि का मूल बीज जिसे हम माया कह सकते हैं, परमात्मा और सुरत (जीवात्मा ) की ही भाँति नित्य है, उसका रूप बदल सकता है, वह नष्ट नहीं हो सकती। माया के दो रूप होते हैं शुद्ध अथवा सूक्ष्म और प्रबल अथवा स्थूल । शुद्ध रूप में मालिक की शक्ति उसे इतना सूक्ष्म तथा शुद्ध बना देती है कि वह भी सत्य लोक में निवास कर सकती है, जहाँ प्रलय की पहुँच नहीं । सत्य लोक तक राधास्वामी का शुद्ध रूप है ( देखो पीछे पृ० ११५) उसके ऊपर माया नहीं जा सकती। सब वस्तुओं का पवित्र आदि स्रोत राधा- स्वामी माया रहित हैं- 'सोत पोत में माया नाहीं !' +

  • ग्रन्थ, पृ० ५५१ ।

+ सार वचन, १. पृ० २२७ ।