फिर भी रामानन्द का महत्व केवल इसी बात में नहीं है कि इन्होंने निर्गसंप्रदाय के किसी अंगविशेष को प्रभावित किया था; अपितु, उन्होंने तो निर्गुणसंप्रदाय को अपना रूप धारण करने की प्रेरणा देनेवाले संश्लिष्ट विकास के क्रम को ही पूर्णता प्रदान की थी। निर्गुणसंप्रदाय ने कबीर के हाथ पड़कर कुछ बातें इस्लामी आधारों से भी ग्रहण की किंतु, इस सम्बन्ध में इस्लाम की देन जितनी निषेधात्मक है उतनी विधेयात्मक नहीं। इस्लाम-द्वारा इसे हिंदू धार- णाओं तथा परम्पराओं के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्राप्त हुआ। मूर्तिपूजा तथा अवतारवाद के वहिष्कार का मूल इस्लाम धर्म में ही दीख पड़ेगा। फिर इस्लाम ने वर्तमान स्थिति के विरुद्ध सामाजिक असमानता के अन्याय को दूर करने के प्रयास में भी सहायता प्रदान की । सूफी मत ने विचारधारा से अधिक उसे व्यक्त करने की शैली में ही सहयोग दिया। केवल दाम्पत्य प्रेम के प्रतीकों के लिए ही निर्गुणी सूफियों के ऋगी कहे जा सकते हैं। जान पड़ता है कि कबीर के अनन्तर मुस्लिम भावना ने और भी अधिक प्रभावित करना आरम्भ कर दिया और कबीरपंथ की धर्मदासी शाखा तथा वीरभान द्वारा प्रवत्तित साधूसंप्रदाय में भी कबीर, मुहम्मद के अनुकरण में एक धर्मदूत जैसे माने जाने लगे। निर्गुणियों का प्रेमभाव सूफियों की देन नहीं, जैसा कि कुछ लोग समझ लेने के धोखे में पड़ सकते हैं। यह तो वही था जिसे रामानन्द के द्वादश शिष्यों ने अपने गुरू से पाया था जैसा कि रामानन्द बतलायी गई है। "शब्द स्वरूपी राघवानन्द जी ने श्री रामानन्द जी कू सुनाया। भरे भण्डार काया बाढ़े त्रिकुटी स्थान जहँ बसे श्री सालिग्राम ।" अमर बीजमन्त्र ॥१७॥
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