-> १५८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय । उपनिषदों की अध्यात्म विद्या को वेदांत कहते हैं। प्रत्येक भारतीय वेदांती का दर्शन का प्रवर्तन उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता को लेकर होता है । प्रत्येक नवीन सिद्धांत का प्रवर्तक प्राचार्य इन्हीं तीनों की व्याख्या करते हुए अपने सिद्धांतों का प्रचार करता है। इसीलिए इन्हें प्रस्थान-त्रय कहते हैं परन्तु इन तीनों को अलग-अलग वस्तु नहीं समझना चाहिए । वस्तुत: ये तीनों एक ही हैं, और दूसरे रूप में उप- निषद् ही हैं। ब्रह्मसूत्र में उपनिषदों की उक्तियों का अनुक्रमपूर्वक सूत्र रूप में संग्रह मात्र है; और भगवद्गीता उपनिषदों का सार मात्र है। इसीलिए भगवद्गीता उपनिषद् मानी भी जाती है। अद्वैत सिद्धांत के) प्रवर्तक शंकराचार्य, विशिष्टाद्वरत के प्रवर्तक रामानुज, भेदाभेद के प्रवर्तक निम्बार्क, शुद्धात के प्रवर्तक वल्लभाचार्य इन सबके, उपर्युक्त प्रस्थानत्रय में से कुछ पर अथवा तीनों पर अवश्य भाष्य मिलते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि मध्यकाल के धार्मिक अान्दोलनों की पुष्टि में जितनी दार्शनिक पद्धतियों का प्रवर्तन हुआ सबका प्रारम्भ उपनिषदों के गहन अध्ययन से । (इसी प्रकार निर्गुणी संतों के सिद्धांतों के श्राधार भी उपनिषद् ही हैं। बीजक की एक रमैनी में कबीर ने स्वयं उपनिषद्, उनके संवादों और सिद्धांतों का तथा योगवाशिष्ट आदि का श्रद्धा के साथ उल्लेख किया है। "तत्वमसि", "वह । ब्रह्म) तुम हो”- '-यह उपनिषदों का उपदेश है, यही उनका संदेश । इसका (कि प्रत्येक जीव ब्रह्म है।) उन्हें बड़ा निश्चय है। अधिकारी लोग इसे वरण ( ग्रहण) करते हैं यह स्वतः-सिद्ध परमतत्व है जिसने सनकादिक ऋषियों और नारदमुनि को सुख दिया। ['छान्दोग्य' में सनत्कुमार और नारद का संवाद ] याज्ञवल्क्य और जनक के संवादों में यही रस बह रहा है। दत्तात्रेय ने इसी रस का आस्वादन किया था। वशिष्ट और राम ने ने योगवाशिष्ट में इसी का बखान किया है। कृष्ण ने ऊधो को श्रीमगद्- हुआ।
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२३८
दिखावट