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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२३९

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तीसरा अध्याय १५६ भागवत् में यही परम तत्व समझाया था, इसी बात को देह धारण करते हुए भी विदेह कहाकर जनक ने दृढ़ किया था । गुलाले तो दृढ़ता पूर्वक घोषणा करते हैं कि “निर्गण मत वेदांत ही है। संत लोग इसी ब्रह्मरूप अध्यात्म का ग्रहण करते हैं; जहाँ दुविधा का भाव न रहे वही अध्यात्म या वेदांत मत है। जो निर्गुण मत को इसके अतिरिक्त कुछ और बतावें, उसे सद्गुरु का मत आता ही नहीं।" संत सम्प्रदाय में आकर अगर वेदांत में कुछ अंतर पड़ गया है तो वह इतना ही कि कहीं-कहीं सूफी काव्य के प्रभाव के कारण उक्तियों में। बाहर से भौतिक प्रेम के गहरे रंग में रंग गई हैं। प्रेम की भावना से उपनिषद् भी सर्वथा अकूते नहीं हैं । परन्तु उपनिषदों की उक्तियों में उसका वह घना रूप नहीं है जिसके कारण निर्गुणियों को परमात्मा बिल्कुल पति के रूप में दिखाई देता है । उपनिषदों में भी एकाध ऐसी उक्तियाँ हैं जिनमें परमात्मा और आत्मा का सम्बंध पति-पत्नी के सम्बंध के + तत्वमसी इनके उपदेसाई उपनिषद कहैं सँदेसा॥ ई निसचय इनके बड़ भारी । वाहिक वरण करे अधिकारौ ।। परम तत्त का निज परमाना । सनकादिक नारद सुष माना । जागबलिक और जनक सँबादा । दत्तात्रेय वहै रस-स्वादा ।। वह राम वसिष्ट मिल गाई । वह कृष्ण ऊधो समझाई ॥ वहै बातक जो जनक दृढ़ाई। देह धरे बीदेह कहाई ।। -बीजक, रमैनी ८। निरगुन मन सोई वेद को अंता । ब्रह्म सरूप अध्यातम संता। जहँवा दुबिधा भाव न कोई। अध्यातम वेदांत मत सोई। यहि सिवाय कोइ और बतावै । ताको सतगुरु मन नहिं आवै । -म० बा०, पृ० २१४ । 1