पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२४३

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तीसरा अध्याय १६३ . तुलसो साहब के अनुसार तीन लोक का स्वामी निरंजन सारे जगत का माल (अध्यात्मिक महत्व) लूट लेता है । वेद इसी को ब्रह्म कह कर पुकारते हैं और इसी का नेति-नेति कह कर वर्णन करते हैं। किंतु संत लोग इससे बहुत आगे पहुँचते हैं । उनका मत ही भिन्न है ।+ शिवदयाल के बाह्यार्थवाद के अनुसार भी काल निरंजन परम-पुरुष- रूप सिंधु की एक बूंद है । वह माया के संयोग से पाँच तत्व और तीन गुणों के द्वारा सृष्टि की रचना करता है, उसका स्थान सातवें कमल में है। सारे जगत् के लोग इसी बूंद (अंश ) को सिंधु (परम पुरुष ) समझते हैं और ठगे जाते हैं। केवल संत ही सत्य लोक में नित्य आनंद मनाते हैं । + अोमं शब्द काल को जानो। सुन में शब्द पुरुष पहिचानो। तीन लोक निर्गुन का घाटा। उन सब रोकि जीव की बाटा ॥ -रत्नसागर, पृ० १५१ । & फुफरद बंद हमारी प्राई । दूसर माया प्रान मिलाई । पाँच तत्त तीनों गुन मिले । यह दस आपस में रले ।। रल मिल कर इन रचना कीनी । तीन लोक ौ चारों खानी। वेदांती अब किया विचार । नौ को छाँट लिया दस सार ।। उसवों वही बूद मम अंस । छाँट ताहि लीन्हीं होय हंस । -सार वचन, भाग २, पृ० ७८-७६ । जितने मत है जग के माहीं। इसो बुंद को सिंध बताहीं ।। वही, पृ० ७७ । कमल सातवें काल बसेरा । जोत निरंजन का वह डेरा। वही, पृ०, ३६६ । संत दिवाली नित करें, सत्त लोक के माहिं । और मते सब काल के, यों ही काल उड़ाहिं ।। वही पृ० ३७१ ।