१६४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय निरंजन को काल पुरुष कहना पहले पहल गीता के अनुकूल जान पड़ेगा। कृष्ण अपने आपको "कालोऽस्मि" कहते हैं । परन्तु उनका अपने आपको 'काल' कहने का अभिप्राय निरतिशय परब्रह्म पद से नीचे गिराना नहीं है। क्योंकि जहाँ उन्होंने अपने आपको 'काल' कहा है, वहीं क्षर और अक्षर दोनों से परे भी बतलाया है | कृष्ण काल और अक्षरातीत दोनों एक साथ हैं। कबीर आदि पहले संतों ने 'निरंजन' से गीता ही का सा अर्थ लिया है। किंतु आगे आनेवाले संतों ने अपने आपको नैरंजन अथवा निरंजनी सम्प्रदाय से ऊँचा चढ़ा हुआ सिद्ध करने के अभिप्राय से निरंजन को उस ऊँचे पद से नीचे ढकेल दिया, यद्यपि वस्तुतः निरंजनी सम्प्रदाय और कबीर के तात्विक सिद्धांतों में कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई देता। ऐसे ही कारणों से कबीर-पंथ की किसी एक शाखा ने निर्गुण-पंथ की द्वादश शाखाओं को कालकृत बताया है। इस शाखा के अनुसार निरंजन ने कबीर से नाम-मंत्र धोखे से ले लिया था। और अब द्वादश पंथ खोलकर दीक्षा देता हुआ लोगों को तारने के बहाने से अपने अड्डे में ले जा है । रहा इस प्रकार कबीर पंथ स्वयं कबोर की शिक्षाओं के विरुद्ध जा रहा था यह औरों से आगे बढ़े जताने की प्रवृत्ति का शिव- दयाल में भी अभाव नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि निर्गुण संत सम्प्रदाय पर रामानन्द का बहुत बड़ा ऋण है। फिर भी रामानन्द तथा अन्य वेदान्तियों से इन निर्गुणी + कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः । गीता, ११-३२। x यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चीत्तमः । अतोऽस्मि लोके वेदेच प्रथितः पुरुषोत्तमः । गीता, १५-१८॥
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२४४
दिखावट