तीसरा अध्याय १६६ निरंजन शीर्षक स्तंभ में दिखलाया जा चुका है । शिवदयालजी और शिव- नारायण जी दोनों इस सम्बन्ध में तुलसीसाहब से सहमत हैं। अवतारों को माया के अंतर्गत मानना सैद्धांतिक दृष्टि से अग्राह्य नहीं । ईश्वर, त्रिदेव, अवतार सोपाधिक होने के कारण सब माया के ही अंतर्गत हैं । त्रिदेव को नानक आदि संतों ने स्पष्ट शब्दों में भी माया का पुत्र कहा है।= निरुपाधिक ब्रह्म इन सब से परे है। परन्तु इससे इन सबके वास्तविक महत्व में कोई कमी नहीं आती । जिस अभिप्राय से उनकी उद्भावना हुई है, उसकी ओर भी एकाध संत की दृष्टि गई है । गुलाब के शिष्य भीखा के शब्दों में ऐसे लोग बहुत कम हैं जिन्हें राम-कृष्ण आदि अवतारों का रहस्य ज्ञात है। केवल ब्रह्म तो एक ही है किंतु उपासना की दृष्टि से भिन्न-भिन्न देवता अस्तित्व में आये हैं। जगजीवनदास का कहना है, "राम ने अवतार लेकर भक्तों का काम सँवारा और उनके लिए दुःख उठाया।"+ परन्तु अवतारों के प्रति यह सामंजस्य-दृष्टि सब संतों में नहीं मिलती। काल कराल कृष्ण अवतारी, सब जग को धरि खावे । - "शब्दावली', पृ. १२० । = एका माई जुगत बियाई तिन चेले परवाण ।। इक संसारी इक भंडारी इक लाये दीवारण ॥ जपजी अक्षय बृक्ष इक पेड़ है निरंजन ताकी डार ।- त्रिदेवा साखा भये पात भया संसार ||-कबीर वचनावली पृ०१
- राम कृष्ण अवतार का बिरला पावे भेव ।
भीखा केवल एक ब्रह्म है, भेद उपासन देव ।।-म० ब० पृ० ८८ + देहीं धरि धरि नाच्यो राम । भक्तन केर सँवारयो काम ॥-बानी, भाग २, पृ० ६६, ५।