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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२५

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थे ( ड ) निर्गुणियों के 'सुरति' व 'निरति' शब्द अपरिचित जान पड़ते हुए श्री आध्यात्मिक क्षेत्र में विदेशीय भावनाओं की ओर निर्देश नहीं करते और उनै भावों को व्यक्त करते हैं जिनका मूल सम्बन्ध नारद से था । नारद ने उन्हें सनत्कुमार से सीखा था जो ब्रह्मा के विमल पुत्र 'छान्दोग्य उपनिषद्' के सातवें अध्याय में आया है कि सनत्कुमार नारद को किस प्रकार क्रमशः उनके हृदय में उच्च से उच्चतर ज्ञान की पिपासा बढ़ाते हुए आगे ले जाते हैं और जब वे इस प्रकार बहुत ऊँचाई तक पहुँच जाते हैं तो उन्हें अपनी ऋमिक आध्यात्मिक पद्धति की शिक्षा देते हैं और धीरे-धीरे स्मृति ( स्मर ) आशा, आत्मा (प्राण ) तथा सत्य से लेकर आनन्द ( भूमा) तक पहुंचा देते हैं । सनत्कुमार ने जिन्हें स्मर, प्राशा एवं भूमा कहा है वे ही क्रमशः निर्गुणियों की सुरति, विरह व निरति हैं। स्मर के विषय में सनत्कुमार कहते हैं कि “जो कोई स्मर का ब्रह्मवत् ध्यान करता है वह स्मर की दूरी तक स्वतंत्र हो जाता है। और स्मर की उपलब्धि हो जाने पर उसके सारे बंधन ढीले पड़ जाते हैं।* यही लगभग कबीर भी सुरति के विषय में कहते हैं जिसकी व्युत्पत्ति मैंने स्मृति से की है । आशा की व्याख्या करते हुए शंकराचार्य कहते हैं कि “प्राशा उन वस्तुओं की इच्छा को कहते हैं जो उपलब्ध नहीं रहती और वह तृष्णा व काम जैसे पर्सायों से भी निरूपित की जाती है तथा वह स्मर वा स्मृति से बढ़कर है क्योंकि अंतःकरण में स्थित हुई आशा से ही मनुष्य अपने स्मरणीय विषय को स्मरण करता है।" विरह वस्तुत: आशा का ही एक सरस रूप है। भूमा को -स यः स्मरं ब्रह्मेत्युपाते यावत्स्मरस्य गतं तत्रास्य यथा कामचारो भवति-छान्दोग्य (७-१३-२) स्मृति लम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः -वही, (७ ७-२६-२)। t-वही (७-१४-१) डा० गङ्गानाथ झा के अनुवाद से उद्धृत ।