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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२६

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सनत्कुमार ने उस सुख की संज्ञा दी है जो इन्द्रियों को उनके वाह्य विषयों से खींच कर अपनी ओर केंद्रित कर देता है ।* यही निर्गुणियं की वह निरति है जिसमें सूरति के जाग्रत हो जाने पर अंतिम वक्ष्या की प्राप्ति हो जाती है। दोनों नारद एक ही व्यक्ति हों वा न हों फिर भी प्रमा भक्ति एवं अध्यात्मविद्या, ये दोनों एक ही वस्तु के दो पक्ष जान पड़ते हैं। प्रेमाभक्ति भी कामनाओं पर वस्तुतः रोक लगा देती है और एक ऐसे प्रेम की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है जो सांसारिक वासनाओं के विरुद्ध है। ये दोनों परस्पर एक दूसरे की विरोधिनी नहीं हैं और निर्गुणियों के यहाँ हम देखते हैं कि इन दोनों का सम्मिश्रण सुसं- गत रूप में हुआ है तथा उसकी अन्य पद्धतियों व संप्रदायों द्वारा भी श्रीवृद्धि हुई है ।+ और इसके लिए वे रामानन्द के ही ऋणी हैं । रामानंद के आज तक उपलब्ध दो पदों [ जिनमें से एक आदि ग्रंथ में है और दूसरे को डा० ग्रियर्सन ने प्रो० श्यामसुन्दरदास को भेजा था और इन्होंने उसे नागरी प्रचारिणी पत्रिका ( भा० ४

  • -योवै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखम् ।

वही, (७-२३-१)। यत्र नान्यत्पश्पति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानीयात् स भूमा। वही, (७-१४-१ +-सुरति निरति परचा भया, तब खूले स्यंभ दुबार ॥ कबोर ग्रंथावली, (१४-२१)।

-सा न कामयमाना, निरोधरूपत्वात् ॥ -नारदीय भक्तिसूत्र, ७ ।

+-प्रेम भगति ऐसी कीजिए, मुखि अमृत बरखे चंद्र । आपहिं श्राप विचारिए, तब केता होइ अनंद रे ॥ 'कबोर ग्रंथावली' (८६-५)।