पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२५३

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तीसरा अध्याय १७३ अनुयायियों की इस प्रथा के लिए जगजीवनदास की बानी में कोई आधार नहीं । जगजीवनदास का शिष्य दूलनदास तो अवतारों का ही नहीं हनुमान, देवी, गंगा श्रादि का भी भक्त था । यही नहीं, निर्गुणियों ने एक प्रकार से साधुओं के विशेष कर गुरुत्रों के महत्व को बढ़ाने के लिए भी अवतारवाद का उपयोग किया है । साधु और गुरु पृथ्वी पर साक्षात् परमात्मा माने गये हैं। कभी-कभी तो परमात्मा से भी बड़ा माना जाता है। इस प्रकार अवतारों के सबंध में यह श्राक्षेप कि उससे नर-पूजा लिए जगह निकल आती है, साधु- पूजा और गुरु-पूजा के संबंध में और अधिक उपयुक्त ठहरता है। क्योंकि साधुओं और गुरुओं को तो वह सम्मान जो अवतारों को मृत्यु के उपरांत मिलता है, इसी जीवन में मिल जाता है । इस लिए उनके द्वारा उसके दुरुपयोग की अधिक संभावना है। यह दूसरी बात है कि सच्चे साधु- संत इस पद का दुरुपयोग नहीं कर सकते । परन्तु जन-समुदाय तो सच्चे और झूठे संत की पहचान में हमेशा गलती करता ही रहेगा। बना हुआ साधु साक्षात् परमात्मा की तरह पुजता हुआ समाज का घोर अकल्याण कर सकता है। जब तक तो गुरुआई का आध्यात्मिक अनुभूति से संबंध रहता है, संभवतः उसका उतना दुरुपयोग न हो पर जब पीड़ी से पीढ़ी अथवा शिष्य-परंपरा में वह चलने लगती है तब निश्चय ही गुरुओं में उससे अनुचित लाभ उठाने की प्रवृत्ति जाग उठती है क्योंकि प्राध्या- त्मिक अनुभूति की परंपरा अपने आँचल में बाँध नहीं ले पा सकती। कुछ कबीरपंथी रचनाओं के आधार पर कुछ लोगों का यह भी विचार है कि वे पैगंबर अथवा अवतार होने का दावा करते थे। परन्तु संग खिलावन, रास वनावन, गोपी भावन, भूधरा । दादू तारण, दुर्त निवारण, संत सुधारण राम जी ।। --'बानी', २, पृ० २८१