१७६ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय स्थान से प्रारंभ करने के लिए एक बार फिर जन्म लेना पड़ता है। वेदांत ने, प्राध्यात्मिक जीवन को लक्ष्य में रखकर, शरीर के विविध व्यापारों को क्रमशः कम होती जानेवाली स्थूलता के अनुसार भिन्न-भिन्न कोशों में विभाजित किया है। जिसका अन्त सभी व्यापारों के केन्द्र आत्मा होता में है । ऊपर से नीचे वा भीतर को ओर स्थिति के अनुसार इन्हें (१) अन्नमयकोश अर्थात् अन्न-द्वारा पोषित आवरण (२) प्राणमयकोश अर्थात् प्राणों वा प्राणवायुओं का आवरण (३) मनोमयकोश अर्थात् मन का आवरण (४) विज्ञानमय कोश अर्थात् बुद्धि का आवरण और (५) आनन्दमय कोश अर्थात् आनन्द का आवरण कहा जाता है । छोटे सुंदर- दास ने इस बात को एक कवित्त में बतलाया है और कहा है कि अन्न- मयकोश प्रत्यक्ष भौतिक शरीर है, प्राणमयकोश विभिन्न प्राणवायुओं की रचना है, मनोमयकोश पंच कर्मेन्दियों की आधार स्वरूप वासनाओं का बना हुआ है और विज्ञानमयकोश पंच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा निर्मित है । ये चार कोश जाग्रत एवं स्वम की अवस्थाओं में रहते हैं, आनन्दमय कोश में गाढ़ी और निर्वाधित सुषुप्ति को अवस्था रहती है। और इन पाँचों कोशों के द्वारा प्रावृत रहकर ही आत्मा जीव वा जीवात्मा कहलाता है। सुंदरदास ने इन बातों के लिए शङ्कराचार्य के शारीरिक भाष्य का प्रमाण दिया है और वे कहते हैं कि इसका वर्णन सांख्य में भी किया गया है । ® अन्नमय कोश सोतो पिंड है प्रगट यह, प्राणमय कोश पंच वायू बखानिए । मनोमय कोश पंच कर्म इन्द्री है प्रसिद्ध, पंच ज्ञान इन्द्रिय विज्ञानमय कोश जानिए । जाग्रत सुपन विषै कहिए चत्वार कोश, सुषुप्ति माहिं कोश आनन्दमय आनिए । पंचकोष भावना के जीव नाम कहियत, सुंदर शंकर भाष्य सांख्य में बखानिए । 'सुंदर विलास', ११६ ।
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