पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२५९

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चतुर्थ अध्याय १७६ दिया था। उन्होंने उसे मछली के उस तैरने के समान कहा है जो नदी की धारा के विरुद्ध उसके मूल स्रोत की ओर बढ़ते समय दीख पड़ता है अथवा उसे मकड़ी के अपने उस केन्द्र की ओर फिर लौटने के सदृश बतलाया है जहाँ से उसने जाले का तामना प्रारम्भ किया था। उदाहरण- स्वरूप कबीर ने कहा है-गुरु ने अगम की ओर से आती हुई धारा से परिचित करा दिया, उस धारा को उलट कर और उसके साथ स्वामी को मिलाकर उसका स्मरण करो। यहाँ पर धारासे तात्पर्य Hypastasis की उस धारा से है जिसके द्वारा स्वामी ने मनुष्य का रूप धारण किया है। इस प्रकार प्रत्येक भूमि की स्थिति में हमारी दशा अनेकरूपिणी हो सकती है क्योंकि एक तो हमें उस भूमि का अनुभव होगा जिसमें हम वर्तमान में स्थित हैं और साथ ही उन भूमियों का भी जो उससे परे की हैं। कारण यह है कि, अपनी वर्तमान स्थिति का अनुभव करते हुए भी हम अपनी प्रथमावस्था से कभी अलग नहीं हो सकते । अपनी वर्तमान स्थिति की विशेषताएं हमें सदा प्रभावित ही करती रहेंगी। अपने भीतर वासनाओं को प्रश्रय देते हुए भी हम अपने ईश्वरत्व का परित्याग नहीं कर सकते, जैसा कि शिवदयाल, ने कहा है कि "मेरा राधास्वामो मानसिक भूमि की अवस्था में वासनाओं का अभिलाषी हो गया है।"x इस प्रकार हमारी बाह्य दशा हमारी निम्नतर स्थिति, तथा आन्तरिक दशा उच्च स्थिति हुआ करती है और हमारी स्थिति की नीची छोर स्थूल जगत् को तथा ऊँची छोर आध्यात्मिक भूमि को सदा स्पर्श किये रहती है।

  • कबीर धारा अगम की सतगुरु दई लखाय ।

उलटि ताहि सुमिरन करो, स्वामी संग मिलाय ॥ (सं० वा० सं०, पृ०७) - मनके घाट हुए अनकामी । असमेरे प्यारे राधास्वामी ॥ सार वचन १, पृ. १२ ॥ ,