पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२६०

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१८० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय दादू के शब्दों में "प्रत्येक शरीर में दो दिलों का निवास है जिनमें से एक खाक का बना है और दूसरा ज्योतिर्मय है तथा जिस प्रकार खाक वाला सदा अन्धा होता है उसी प्रकार प्रकाशवाले में सदा भगवान् बसा करते हैं। मानवीय स्थिति, कोरो भौतिक भूमि से कुछ भूमियों की ऊँचाई पर है। हममें से बहुत लोग अभी तक उसी भूमि पर हैं जिसे किंग्सलैंड ने सुविस्तृत भूमि कहा है और जिसे सर्व-साधारण मानसिक भूमि कहेंगे। इस भूमि पर हमारे चित्त की स्थिति हमारी सभी प्रकार की कमियों के समष्टि रूप में हुआ करती है जिसमें अधिक स्थूल भौतिक सीमाएँ नहीं पाई जातीं और हमारी प्राध्यात्मिकता भी बनी रहती है। इन सीमाओं के रहते हुए भी हम लोगों को अपनी उस शुद्ध प्रकृति अथवा उपाधि- रहित तत्व का मानों स्मरण बना रहता है, जो हमारे जीवन-काल के अधिकांश भाग में उपाधियों द्वारा दबा रहता है क्योंकि मन का यह स्वभाव ही है कि वह हमारी स्थिति के देवी मार्ग के उच्चतर वा प्राध्यात्मिक अंश को सदा स्पर्श करता रहे । निर्गणियों के अनुसार इसी स्मरण शक्ति के लिए पारिभाषिक शब्द 'सुरति' है। यदि हमें अपने प्रत्यावर्तन वा आभ्यंतरिक यात्रा में सफल होना है तो हमें चाहिए कि मन को उन उपाधियों से नितांत रहित कर दें जिनकी उसने सृष्टि कर डाली है। मन में; इस प्रकार, दोनों पक्षों की शक्ति गुप्त रूप से वर्तमान है। कबीर के शब्दों में “मन पर अधिकार न रख सकने के कारण ही हमारी हार होती है । और उस पर विजय प्राप्त कर लेने पर ही विजय होती . x देहीमाहें दोइ दिल, एक खाकी एक नूर । खाकी दिल सूझे नहीं, नूरी मंझ हजूर ॥ सं० वा० सं० पृ०६२।