पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१८२ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय के गर्त में हमारा अधोमुख पतन करा देता है। श्रात्मा ने अपने ऊपर उपाधियों का प्रावरण उनसे होकर वा उनके द्वारा कार्य करने के निमित्त चढ़ा रक्खा है। अतएव इसे आत्मा की शक्ति के लिए साधना-स्वरूप होना चाहिए। किंतु जब इसे स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है तो यह काम करना छोड़कर इन्द्रियों को अपनी ओर से उन्मुक्त कर देता है जो वास- नाओं-द्वारा उसको भी जाकर इस स्वर्गमयी भूमि को नरक रूप में परिणत कर देता है । कबीर ने कहा है- "मन पाँच कर्मेन्द्रियों के वश में रहा करता है वे इसके वश में नहीं। जिधर देखता हूँ उधर ही दावानल जल रहा है और जहाँ कहीं भी भागना चाहता हूँ, वहीं आँच लगती है।" दैवी मन जिसका अधिकार खाक के मन पर नहीं रह जाता अपनी वर्तमान गति से असन्तुष्ट होकर अपने स्वभाव के अनुकूल वस्तुओं की चाह में सदा रहा करता है, किंतु खाक का बना मन अपने स्वभाव के प्रतिकूल बनी वस्तुओं से ही अंसन्तोष को दूर करने में प्रयुक्त रहता है इसलिए सन्तोष हो भी तो कैसे ? इसी बात से उद्विग्न होकर कबीर ने अभिशाप के रूप में कहा है--"इस मथुरानगरी (अर्थात् शरीर) पर बज्रपात हो जाय जहाँ से कृष्ण (आत्मा) को निर्वासित वा असन्तुष्ट होकर जाना पड़ता है।": यद्यपि इस प्यास के बुझाने के साधन हमारे भीतर विद्यमान हैं तो भी आश्चर्य है कि हम उसका उपयोग पूर्ण रूप से नहीं कर पाते; जैसा कि तुलसी साहब ने कहा -"पानी में रहती हुई भी मछली मर रही है, इस बात को केवल - = मन पाँचों के बसि परा, मन के बस नहि पाँच । जित देखू तित दौ लगी, जित भागू तित पांच ।। ६६२ ।। 'क० की बानी' पृ० ६७ ।

बजर परौ इहि मथुरा नगरी, कान्ह पियासा रे ।। ७६ ।।

क० ग्रं॰, पृ० ११२ । 7