पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२६३

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चतुर्थ अध्याय १८३ कुछ चुने हुए तल्लीन संत ही जानते हैं।">प्यास वा असन्तोष तभी जा सकता है जब मन हमारे वश में पूर्ण रूप से आ जाय, जब इन्द्रिय जन्य जीवन की दृष्टि से मार दिया जाय और आध्यात्मिक जीवन की दृष्टि से भली भाँति जागरूक रहे तभी स्वयं भगवान् आकर हृदय को अपना निवास स्थान बना लेते हैं। दादू का कहना है कि, "जब मन भौतिक तत्व की दृष्टि से मृतक बन जाता है और इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं; तभी हमारा मन शरीर के सारे गुणों से रहित होकर निरंजन में लग जाता है।"x कबीर ने भी अपने स्वाभाविक ढंग से कहा है कि जब मन मर जाता है और शरीर शक्तिहीन हो जाता है तो मैं जहाँ-जहाँ जाता हूँ वहीं हरि 'कबीर-कबीर' पुकारते पीछे लगे फिरते हैं। श्रतएव यह बहुत आवश्यक है कि मन की प्रवृत्तियों को वहिर्मुख से अंतर्मुख करा दिया जाय। सभी प्रकार की वाह्यपूजाएँ जिनके द्वारा वहि- र्मुख वृत्तियों को सहायता व उत्तेजना मिल सकती है इसी कारण बन्द ही नहीं, वरन् पूर्णतः तिरस्कृत की जानी चाहिए। जब उस धर्म के द्वारा, जिसका मुख्य प्रयोजन मनोनिहित विषयों पर विजय प्राप्त करना है, मन पर और भी बन्धन होने लगे तो हम उसकी मुक्ति की श्राशा क्या कर सकते हैं ? मूर्ति की गणना तो उस सूची में की गई है जो निकृष्ट > पानी में मीन पिकासी। जानत कोई संत बिलासी ॥ शब्दावली २, पृ० १६८ । x जब मन मृतक है रहै इन्द्री बल भागा। काया के सतगुरु तज, नीरंजन लागा ।। १२८ ॥ बानी । म, पृ० ११४ । - कबीर मन मिरतक भया, दुरबल भया सरीर । पाछे लागे हरि फिरै, कहै कबीर कबीर ।। सं. बा० सं०, भा० १, पृ० ४६