१८४ हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय पदार्थ है और उसके अनन्तर ही पैगंबरों व अवतारों के नाम आते हैं। जो धार्मिक संप्रदाय बाह्य विधानों को महत्त्व दिया करते हैं उन्हें भी निर्गुण पंथ ने नहीं छोड़ा है । संन्यासियों की इस प्रथा को लक्ष्य कर कि वे बालों को मुड़ा लिया करते हैं, कबीर ने कहा है कि “यदि बाल मुड़ाने से ही भगवान की प्राप्ति हो तो सभी मुड़ाकर उसे पा सकते हैं, किन्तु भेड़ें बार-बार मुड़ाई जाने पर भी स्वर्ग तक नहीं पहुंच पातीं। बालों ने अपराध ही क्या किया है, जो उन्हें बार-बार मुड़ाते हैं, उस मन को ही क्यों नहीं, मूंडते जो विकारों ने भरा हुआ है। इसी प्रकार धरनी भी कहते हैं-"जबतक मन वास्तविकता को भली भाँति ग्रहण नहीं कर लेता तब तक कुमति का द्वार टूट नहीं सकता और न तुम्हें मुक्त करने के लिए भगवत्कृपा का प्रयोग ही हो सकेगा । तबतक तुम व्रतपालन अथवा तीर्थयात्रा के भ्रम में पड़ कर अपने को क्यों भटकाते फिर रहे हो ? तुम अपने मन को पूजागृह, मूर्ति एवं मसजिद में लगाकर धोखे में डाल रहे हो । केवल दान देने, प्रतिदिन पुराणादि सुनने से ही तुम्हें भवसागर पार करने में सहायता नहीं मिल सकती । धरनी कहते हैं कि नावरूपी . वास्तविक ज्ञान का मन में प्रवेश करना ही केवल तुम्हें पार लगायेगा। यदि तुम भक्ति के साथ उसका आश्रय ग्रहण करोगे" + दादू के शब्दों
- मूड मुडाए हरि मिलें, सब कोई लेइ मुडाय ।
बार-बार के मूड़ते भंड़ न बैकुंठ जाय ॥ ३६१ ॥ केसन कहा बिगाड़िया, जो मूड़े सौ बार । मन को क्यों नहिं मूड़िये, जा में भरे बिकार ॥ ३६२ ॥ क० की बानी, पृ० ३६ । + जौलौं मन तनु नहिं पकरै । तौलौं कुमति बिकार न टूटै, दया नहीं उघरै ।। काहे को तीरथ बरत भटकि धरै भ्रम थकि थकि थहरै ।