१८८ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय रूप में परिणत कर दूं । दोष इन्द्रियों में ही नहीं बल्कि उस मन के भीतर है जो सारी वासमाओं की उत्पत्ति का भूल स्थान है और जो इन्द्रियों को दुष्कर्म करने के लिए सदा प्रेरित किया करता है । पहली अति मात्रा भी, जो यद्यपि बहुत अपनायी जाती है, सत्य से कहीं दूर है। यह मुख्य समस्या का हल उसकी ओर से आँख बचा कर करना चाहती है, प्रलोभनों से भाग कर ही उनसे अछूता रहना चाहती है और वासनात्रों के उत्पादक मन का केवल अनुसरण मात्र करनेवाली इंन्द्रियों को अशक्त बनाकर ही इन्द्रियपरक जीवन से मुक्त होना चाहती है। किन्तु ये मार्ग सर्वथा निष्फल हैं। वनों में भाग निकलना या श्राश्रमों का श्राश्रय ग्रहण करना धोखा देना है। कोई भी बिल्ली किसी तोते को केवल इसीलिए मारने से नहीं रुक सकती कि तोते ने अागामी संकट की ओर से अपनी आँखें मूंद ली हैं। जब किसी को किसी वस्तु के सम्मुख पाने का ही अवसर नहीं आया तो उसका उस पर विजय लाभ कर लेना कैसे कहा जा सकता है, सम्भव है कि वह उनके द्वारा अधिक सुगमता के साथ अभिभूत हो जाय यदि उनके समक्ष श्राने का कभी अवसर श्रा जावे। प्रलोभनों-द्वारा किसी के अस्पृष्ट रह जाने तथा स्थूल इन्द्रियों की सीमा के बाहर जाने की मुख्य पहिचान तभी हो सकती है जब हम इन प्रलोभनों के बीच रहते हुए भी इनसे अछ ते रह जाय । अतिमात्राओं की मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ लगानेवाले लोगों के प्रति सर्वप्रथम महात्मा गौतमबुद्ध ने बतलाया था कि सत्य का पाना उनके द्वारा नहीं, बल्कि मध्य मार्ग-द्वारा ही सम्भव है। उन्होंने कहा था कि वीणा के तारों को यदि अधिक कस दिया जाय तो वे टूट जायेंगे और यदि उन्हें ढीला.रक्खा जाय तो उनसे कोई स्वर नहीं निकल सकता। इसलिए उन्होंने दोनों अति मात्राओं का परित्याग करने की सलाह दी थी। अत्यधिक खिंचाव अथवा अधिक ढीलापन न रहने पर ही वह
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