पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२६९

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चतुर्थ अध्याय १८६ अलभ्य स्थिति पा सकती है जिससे वीणा के तारों द्वारा संगीत का स्वर संवादन निकल सके और यही दशा हमारे विपंची रूपी इस शरीर की भी है, यदि इस मंत्र द्वारा आध्यात्मिक स्वरक्य को जाग्रत करना है तो न तो इसे उपवासों वा क्लेशों द्वारा नष्ट कर देना आवश्यक है और न कुत्सित इन्द्रिय-जन्य विषय-भोगों का साधन होने देना है। इस बात में निर्गुणियों का गौतमबुद्ध के साथ पूरा मतैक्य है। दाद कहते हैं- "हमारा उच्च विचार तो इस प्रकार का है कि हम सांसारिक बातों को न ग्रहण करें और न परित्याग कर दें, हम लोग मध्यमार्ग पकड़ कर ही मुक्ति के द्वार तक पहुंचना चाहते हैं।” x यह मध्य वा बीच का मार्ग, जिसे हम जानते हैं कि निर्गुण संप्रदाय- वालों ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों से लिया था, स्वभावत: बज्र के साथ युद्ध करने के समान है। यह मार्ग इतना मानकर चलता है कि जगत् का सांपेक्ष्य दृष्टि से अस्तित्व अवश्य है और उसके विरुद्ध हमें कार्य करना है। जगत् के स्वमिल रूप के कारण किसी को धोखा न होना चाहिए कि इसके विरुद्ध हमें तैयार नहीं रहना है। स्वप्नं भी जब तक वर्तमान रहता है, किसी न किसी दृष्टि से सच्चा ही कहलायेगा। सापेक्षिक सत्यता का प्रभाव हमारे ऊपर तब तक वर्तमान रहता है जब तक हम अंतिम सत्य को साक्षात् नहीं करते । हाँ, जब अंत तक लड़कर हम लोग जगत् संबंधी संचाई की सापेक्षता सिद्ध कर लेते हैं और इस प्रकार शाश्वत् सत्य को उपलब्ध कर लेते हैं तो उस समय जगत् का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता। किंतु तब तक हमारा युद्ध चलता ही रहेगा। पलायन वृत्तिवालों को कबीर ने नीचे लिखें शब्दों द्वारा x ना हम छाड़ें ना ग्रहैं, ऐसा ज्ञान विचार । मद्धि भाव से वै सदा, दादू मुकति दुवार ।। बानी भा० १, पृ० १७० ।