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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२७६

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१६६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय तथा उसी भक्ति के साथ सेवा करता है जैसे एक सच्चा सेवक अपने स्वामी की। उसके इस प्रेम में अात्माभिमान तथा प्रात्मप्रतिपादन को कोई स्थान नहीं । एक सच्ची और कर्तव्य परायणा स्त्री की भाँति उसे अपने स्वामी की दया में अटूट विश्वास है । जिसे अकथनीय विपत्तियाँ तक दूर नहीं कर सकतीं। उसके अनुसार संसार के प्रपंचों में उसका फँस जाना उसी के कर्मों का फल है। भगवान् अपनी कृपा-द्वारा सभी योग्य सेवकों को गले लगाने के लिए उत्सुक हैं । किंतु हमें अपनी भक्ति के लिए कोई बदला न चाहना होगा। जब तक स्वर्ग की अभिलाषा बनी हुई है तब तक किसी को भी हरि चरणों की शरण प्राप्य नहीं जो कोई आशा को निराशा में परिणत कर देता है उसे नानक के अनुसार भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। वास्तव में 'योग्य बनो, इच्छुक न बनो' ही निर्गणी का नियम है। निर्गुणी इसी अविचल व एकांतिक प्रेम से अपने स्वामी को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है और उसको कृपा-द्वारा सत्य का प्रत्यक्षी- करण करा लेता है जिसके परिणाम स्वरूप भगवत्प्राप्ति हो जाती है। (मोक्ष-प्राप्ति का मुख्य साधन वह ईश्वरीय स्मृति वा सुरति है जिसके साथ कोई व्यक्ति जन्म लिया करता है) (बच्चे में वह सबसे अधिक निर्मन समझी जाती है और अंग्रेज दार्शनिक कवि वड्सवर्थ ३. आध्यात्मिक ने उसी की निर्दोषता में इसे प्रतिबिंबित पाया था। वातावरण जब निर्गुणी फिर से बालक हो जाने की चर्चा करता है तो उसकी दृष्टि में यही तत्व निहित रहता है । जैसे- जैसे मनुष्य सांसारिक स्वार्थपरक कार्यों में निरत होता जाता है वैसे-वैसे श्रायु के साथ धीरे-धीरे यह स्मृति भी क्षीण होती जाती है। बालकों के ॐ जब लग बैकुंठ की आसा, तब लग न हरि चरण निवासा ।। क० ग्र०, पृ० ६६, २४ । + आसा माहिं निरास बुलाये। निहचं नानक करते पाये । ग्रन्थ, पृ० ४८६। .