पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२७५

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रा चतुर्थ अध्याय १६५ है कि जो भोजन नहीं करता और न उसका स्वाद जानता है, वह निर्बुद्धि- भरे तपन के कारण महान् कष्ट भोगता है। जो वस्त्र नहीं पहनता अथवा, मौन व्रत के कारण, प्रांतरिक वेदना सहकर अपने को नष्ट करता हं वह गुरु-विहोन होकर सोया हुअा है। उसका जागरण किस प्रकार होगा ? हमें मानव-शरीर से पूर्ण लाभ उठाना चाहिए। कदाचित् हमें वह फिर न मिल सके इस कारण उसे जीर्ण-शीर्ण न कर देना चाहिए। तो भी हमें उसके प्रति अत्यंतानुराग दिखलाना और उसकी सारी भ्रमात्मक प्रवृत्तियों में दत्तचित्त रहना उचित नहीं। इसे अपने वश में जाभली भाँति रखना आवश्यक है। जैसा कि मनोविश्लेषण के सिद्धांत- t वालों का कहना है, वास्तविक निग्रह के निमित्त इनके मूलभूत निकृत मानव स्वभाव को शुद्धतर मार्गों से ले जाकर भगवान् की ओर मोड़ देना अधिक श्रेयस्कर होगा। जो धर्म मनुष्य के इस निकृत स्वभाव का विचार नहीं करता वह सार्वभौम धर्म की श्रेणी तक पहुँचने योग्य नहीं है। उसके सदस्यों की संख्या अधिक हो सकती है, किंतु उसके सच्चे अनुयायी कम ही होंगे। निर्गुणपंथ इस बात को नहीं भूलता। इसके मूल-स्रोत एवं प्रेरणा दोनों का स्थान हृदय है। निर्गणी का भगवत्प्रेम शुष्क सिद्धांत नहीं, अपितु स्थायी प्रवृत्ति है। कोई भी सिद्धांत का सच्चा अनुसरण नहीं कर सकता जब तक उसका पूर्ण अनुराग उसके साथ नहीं है। भगवान् से वह उसी तीव्रता के साथ प्रेम करता है जिससे स्त्री अपने पति को, उसी निश्छल भाव से चाहता है जिससे एक बच्चा अपने माता-पिता को ® अन्न न खाइमा, सादु गॅवाइमा, बहु दुख पाइा दूजा भाइमा । वसत्र न पहिरै, निःस दिन कहिरे, जाने सूता ग्रंथ०, पृ० २५३ । . मौन विगूता, वयँ गुरु बिन