पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२८१

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चतुर्थ अध्याय २०१ हो जायगी जिसकी आवश्यकता का वे अनुभव किया करते हैं और साथ ही उनके समान एक आध्यात्मिक शक्ति का संचालन करनेवाला यंत्र भी विद्यमान रहेगा जिससे वे अपने अभीष्ट बल का संचय कर सकेंगे। मूर्ति व वाह्य पदार्थों की उपासना-द्वारा मन की बहिर्मुखी वृत्ति जाग्रत रहा करती है और इसी कारण उसका अभ्यास ठीक नहीं कहा जा सकता, किंतु साधु सारी मानसिक प्रवृति को जड़ता को हिलाकर दूर कर देता है और उसे अंतर्मुखी भी बना देता है। इतना ही नहीं, वे इस भतल पर भगवान् के अवतार भी माने जाते हैं । यदि सारे बाहरी विधान एक में मिला दिये जायें तो भी वे साधु की संगति के प्रभाव की बराबरी नहीं कर सकते ।। जैसा दयाबाई ने कहा है--साधु का सत्संग करोड़ों यज्ञों, व्रतों व नियमों के समान है, वह विषय-वासना को पूर्णतः दूर कर शांति का सुख देता है।" लोग तीर्थयात्रा के लिए व्यर्थ ही जाया करते हैं ; दादू कहते हैं कि ---"शरोर में गणित कर्मों को धोने के लिए तुम पवित्र स्थानों पर जाया करते हो, किन्तु जो कर्म तुम वहाँ करते हो उसे कहाँ धोनोगे ?" परन्तु पलटू को तीर्थयात्रा में एक लाभ दीख पड़ता है उनका कहना है कि-"तीर्थ-यात्रा करना तो अपराध है किन्तु, यदि उससे कोई लाभ है तो इतना ही कि उसके द्वारा तुम्हें साधुओं की संगति मिल सकती है।"x ॐ कोटि यज्ञ ब्रत नेम तिथि, साध संग में होय । विषय व्याधि सब मिटत है, सांति रूप सुख जोय । सं० बा० सं० १, पृ० १७८ । = कायाकर्म लगाय करि, तीरथ धोवै जाइ । तीरथ माँ, कीजिए, सो कैसे कहि जाइ । १२७ बानी, पृ० १५६ ४ पलटू तोरथ के गए, बड़ा होत अपराध । तीरथ मे फल एक है, दरस देत हैं साध ।। सं० बा० सं० १, पृ. २१८ ।